आरज़ू
आरज़ू
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मैं नहीं बनना चाहती
पहाड़
जिसके अंदर क्या है
यह जानने की धुन में
बारुदी विस्फोट किया जाये
मुझे बनना है
नदी के किनार पर खडे़
वृक्ष से टूटकर बह रहा पत्ता
बहते-बहते पहूंचना है मुझे
उस मधुमक्खी के पास
जिसके 'पर' पूरी तरह भीगा हो
और वह मौत के कगार पर खडी़ हो
बनना है मुझे उसका सहारा
बिठाना है उस वक्त़ तक उसे
अपने कांधे पर
जब तक उसके 'पर'
उड़ने लायक न हो जाये
बागों में वो जायेगी
चूसेगी अनेकों रस
लायेगी अपने छत्ते तक
बनेगा उससे मधु
मिठास भरे मुँह से
जब बतायेगी वो मेरा योगदान
पा जाऊंगी मैं निर्वाण।
