आँसू छिपाती पगली
आँसू छिपाती पगली


उलाहने तानों की सताई
वो जलती तपती पहली बारिश की
छम -छम की धारा में नहाने चली..!
शब्दों की बूँदा बाँदी के
घाव से टकराकर बरखा की रिमझिम रोती है
कितनी तेज है शब्दों की मार
सावन की बौछार में नहाते भी
एक नारी के तन को नहीं मिलती
शीतल परत की मरहमी..!
जलना है जलती रहेगी सहते सहते
गर्म बाण शब्दों के उबलते
तरकस से निकलते छलनी करते..!
हिमखंड सी नर्म सौम्य रोम रोम पिघलती
एक तपिश ज़िंदगी की कहाँ जाए कोई,
अपने ही जब दर्द दे फ़रियाद की गुंजाइश नहीं..!
बुत सी बन बैठी ना ताप जलाएँ ना ठंडी सताती,
बारिश का बहाना लिए पगली आँसू है छुपाती।।