आंगन गांव के घर का
आंगन गांव के घर का
आज गांव के घर के आंगन की
कोई सुध-बुध नहीं है लेता
देखूं इसे तो छलक जाती हैं आंखें
जो आज भी सब का इंतजार है करता
बहुत दिन हुए इस आंगन में
कभी खुशियां छलका करती थीं
मुस्कुराती गुनगुनाती कभी इस
आंगन में एक दुनिया रहा करती थी
हर खुशी के मौके पर
आंगन झूमा करती थी
कभी लोरी कभी सोहर
कभी कजरी कभी ब्याह के गीत
गुंजायमान होती रहती थी
जब सुबह की धूप
आंगन को छूती थी
हर कोना-कोना आंगन का
बस खिल खिल जाता था
चिड़ियों की चहचहाहटों से
आंगन गूंजा करता था
आंगन में माॅं तुलसी का चबूतरा
बड़ा मनोरम लगता था
आज सब छोड़ चुके
अपने इस आंग
न को
सिमट चुके हैं चारदीवारों में
बंद हुए मकानों में
इस मनोरम खुशी का वक्त कहॉं
मिलता शहर के मकानों में
समय का ऐसा चक्र चला
इंसान आगे ही बढ़ा
पीछे कभी ना मुड़ा
फिर ना मिट्टी से जुड़ा
ये आंगन आज भी हमारी
शायद बाट जोहता है
किसी दिन हम आएगें
यही इंतजार करता है
दिन महीनें कई साल
यूं ही बीत जातें हैं
पर हम अपनें आंगन की
सुध-बुध कहाॅं ले पातें हैं
अपनी मिट्टी की जड़ों को
हम यूं ही भूल जातें हैं
एक दिन ये आंगन
यूं ही ढ़ह जाएगें
बस यूं ही हम
पछतातें रह जाएगें
चाह कर भी ये कभी
वापस नहीं आएगें
हम इसें देखनें को
भी तरस जाएगें!