आखिर क्यों
आखिर क्यों
मेरी चाहतो का अपना मंजर है,
चारो तरफ़ फैला गहरा समन्दर है,
नजाने क्यों कभी-कभी शांत सी हो जाती हूँ
सवाल कई गूँजते अंदर ही अंदर है।।
क्यों वक़्त के साथ-साथ रिश्ते भी बदल जाते है
जरुरत के हिसाब से रिश्तों के भी मोल भाव लगाये जाते है,
क्यों इन्सान भावनाओं से खेलने लग पड़ा है
क्यों अपनो को, बाहर वालों से कम आंकने लगा है।।
क्यों पैसा ही माई-बाप हो गया है
क्यों जिसके पास पैसा है, उसी रिश्ते का बोल -बाला होता है,
क्यों दिल्लगी भी पैसे की दीवानी हो गयी है,
क्यों प्यार और सम्मान भी अब पैसा देख कर मिलता है।।
माना पैसा भी जरूरी है जीवन के लिये,
पर पैसा ही सब कुछ है ये सोचना कहाँ तक सही है
समझ नहीं पा रही हूँ, दुनिया की इस रीत को
कोशिश कर रही हूँ,
पर शांत होती जा रही हूँ अंदर ही अंदर न जाने क्यों।।
अब तो सिर्फ़ यही लगता है,
मेरी चाहतो का अपना मंजर है,
चारो तरफ़ फ़ैला गहरा समंदर है।।