आदर्श की अपेक्षा में
आदर्श की अपेक्षा में
एक आदर्श की अपेक्षा में
आये हुये विचारों के बीच से गुजरते हुये
लगा हम कितने सिद्धहस्त हो चले हैं।
अपनी ग़ैरजिम्मेदारियो में दूसरों को ढूंढ लेने में,
अधर्म में धर्म देख लेने में,
अराजकता में राजनीति देख लेने में,
ढेर सारे खयालात प्रश्नवत जड़ बना देते हैं मुझे।
कोई मुझसे पूछे
तुम्हारा देश साम्राज्यवादियों का एजेंट है,
अपराधियों का स्वर्ग है,
राजनीति का हत्यारा है तुम्हारा देश,
तुम्हारे हुक्मरान बुजदिल हैं,
कठपुतलियां हैं,
उत्तर की अनुपस्थिति में मैं सोचने लगा
आखिर इन प्रश्नों में चिंतन की स्थिति क्या है।
प्रश्नों की जीवंतता
और चिंतन की निरन्तरता के बीच
आदर्श में आये विचारों के बीच से गुजरते हुये
एक मुस्कान उभरी
एक कुटिल मुस्कान उभरी
सत्ता और बुद्धि के अन्तर्सम्बन्धों की।
मेरी मूर्खता पर या अन्तर्सम्बन्धों की सफलता पर
फिर वही मुस्कान
फुसफुसाई चलो इंसान उलझा है
अपने सैद्धान्ति सौंदर्य की जटिलता में।
ढूंढेगा अपना वर्ग शत्रु
अपनी ही भाषा मे
और हमारा अन्तर्सम्बन्ध थोड़ा और परिस्कृत हो,
परेड करेगा फौजी टुकड़ियों की तरह
सैद्धांतिक भाषायी टकराव के बीच।
फिर गढ़ीं जाएंगी संकल्पनाएँ
मनुष्य के दर्द के आस पास फिर
बुना जाएगा सौंदर्य सा ताना बाना
मनुष्य को उसकी आस्थाओं से जोड़ते हुये।
कितना आसान है
मनुष्य की उसकी प्रतिबद्धताओं
से जोड़ जोड़ कर उसको
उसकी जड़ से अलग कर देना
आदर्श की अपेक्षा में।
