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Muskan Makhija

Abstract

4.5  

Muskan Makhija

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वो पहला प्यार

वो पहला प्यार

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491


ख़ूबसूरत वो वक़्त,

ख़ूबसूरत वो लम्हें थे।

जब हर जज़्बात से अन्जान,

मेरी इन निगाहों के आगे तुम रहते थे। 


ना कोई वक्त का दायरा और

ना आने वाले कल की फ़िक्र। 

बस होठों पर वो ख़ामोशी और

आँखों में बसे हसीं ख़्वाब थे। 


मासूमियत से भरी वो शरारतें

और नज़ाकत से भरे वो दिन

उम्मीदो से भरी वो रातें और

इस मुस्कान में समेटे

हज़ार अनकहे शब्द।


बिना किसी स्वार्थ के

तुम्हें देखने की दुआ और

मन में तुम्हें जानने की इच्छा।

 

चलते थे हम अपने साथ लेकर,

जिसमें कोसो दूर था हमारा

किसी भी ग़म से नाता। 


सच ! आज भी जब

याद आते है वो बीते लम्हें हमें,

तो अपने आप ही वो रिश्ता

जोड़ देते हैं हमारा

अपनी ही असली मुस्कान से। 


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