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हाथी - 2

हाथी - 2

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 “प्यारी नाद्या, मेरी प्यारी बच्ची,” मम्मा कहती है, “तुझे कुछ चाहिए ?”

 “नहीं, मम्मा, कुछ भी नहीं चाहिए।”

 “मैं तेरे पलंग पर तेरी सारी गुड़ियों को रख दूँ। हम छोटी सी कुर्सी रखेंगे, छोटी सी मेज़ रखेंगे और टी-सेट रखेंगे। वे चाय पियेंगी और मौसम के बारे में, अपने-अपने बच्चों की तबियत के बारे में बात करेंगी।”

। “थैंक्यू, मम्मा, मेरा दिल नहीं चाहता, मुझे ‘बोर’ लगता है।”

 “चलो, ठीक है, मेरी बिटिया, गुड़ियों की कोई ज़रूरत नहीं है। तो, क्या कात्या या झेनेच्का को बुलाऊँ ? तुझे तो वे बहुत अच्छी लगती हैं।”

 “ज़रूरत नहीं है, मम्मा। सच में, ज़रूरत नहीं है। मुझे कुछ भी, कुछ भी नहीं चाहिए। मुझे इतना ‘बोरिंग’ लगता है !”

 “तेरे लिए चॉकलेट लाऊँ ?”

मगर बच्ची जवाब नहीं देती और निश्चल, अप्रसन्न आँखों से छत की ओर देखती है। उसे न तो कहीं दर्द हो रहा है, न ही बुखार है। मगर वह दिन पर दिन दुबली और कमज़ोर होती जा रही है। चाहे उसके साथ कुछ भी करो, उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, और उसे किसी चीज़ की ख़्वाहिश ही नहीं होती। इस तरह वह पूरा-पूरा दिन और पूरी-पूरी रात पड़ी रहती है, ख़ामोश, दयनीय। कभी कभी वह आधे घण्टे के लिए ऊँघने लगती है, मगर सपने में भी उसे कोई भूरी-भूरी, लम्बी, उबाने वाली चीज़, जैसे पतझड़ की बारिश, दिखाई देती है।

जब बच्चों के कमरे से ड्राईंग रूम का दरवाज़ा खुला होता है, और ड्राईंग रूम से आगे स्टडी-रूम का, तो बच्ची अपने पापा को देखती है। पापा तेज़-तेज़ एक कोने से दूसरे कोने तक जाते हैं और बस, सिगरेट पीते रहते हैं, पीते रहते हैं। कभी कभी वो बच्ची के कमरे में आते हैं, पलंग के किनारे पर बैठते हैं और हौले हौले नाद्या के पैर सहलाते हैं। फिर अचानक उठ कर खिड़की के पास जाते हैं। वह सड़क पर देखते हुए सीटी बजाते हैं, मगर उनके कंधे थरथराते हैं। इसके बाद वह जल्दी से एक आँख पर रुमाल रख लेते हैं, फिर दूसरी पर, और फिर, जैसे गुस्से में, अपने स्टडी-रूम में चले जाते हैं। इसके बाद वो फिर से एक कोने से दूसरे कोने में भागते हैं और बस।।सिगरेट पीते रहते हैं, पीते रहते हैं और तंबाकू के धुँए से स्टडी-रूम पूरी नीली-नीली हो जाती है।


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