सुनील पवार

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सुनील पवार

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माँ का प्यार

माँ का प्यार

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क्या बारिश के दिन थे वो जब हम बचपन में नाव बनाया करते और खूब पानी में खेलते। तो माँ हमें डांटती और कहती बेटा सर्दी लग जायेगी, आ आजा चल अब बस भी कर और डांट में उनका प्यार भरा चेहरा देखने को मिलता और वही सब देखकर हम और नाचते। 

फिर उनका कहना कि मैं पापा को नाम बताऊँगी तेरा और तुझे डांटने और मारने लगाऊँगी ये कहना और फिर हमारा फट से अंदर चले आना और माँ से माफ़ी मांगने से उनका मुस्कराना और प्यार से हमारे सिर पर हाथ फेरना कितना सुहाता था। आज हम बड़े होने के बाद जब जिम्मेदारी को संभालने के बाद उनका कहना बेटा इधर आना तब हमारे मुँह से क्या आवाज़ निकलती है जानते हो आता हूँ न माँ क्यूँ इतना चिल्लाती हो। मैं अब बच्चा नही हूँ आता हूँ न मेरे भी तो काम होते हैं कई बस तेरा ही काम करूं क्या। 

फिर हम अपने किसी काम में रहते हुए भूल जाते है और वो माँ तुम्हें आवाज़ देते हुए थक जाती है और अपने मन ने बस इतना कहती है, कुछ नहीं बेटा तेरे शर्ट सी रही थी तो धागा तो डाल दे मुझ से देखा नहीं जाता इतना बारीक़। अब वो तुम्हें ये कहकर भी नहीं डांट सकती कि मारूं क्या तुझे या तेरे पिता जो आयगे तो तुझे मरेंगे। बेटा क्या करे वो माँ जब बेटे का प्यार अपने बुढ़ापे में न पा सकी वो कितनी अभागी है वो और जो उसकी सेवा करके उसका पुण्य न कम सका, वो बेटा तो मेरी नज़रों में सबसे ग़रीब है, जो महलों में रहकर खरीदी क्या बस गरीबी, और जो झोपड़ों में रहकर माँ का सुख पहचाना

वही है सच्चा अमीर, ये पैसे क्या है हाथों का मैल जब जब जिसने कमाया है वो तो भाई माँ का सुख पाया है।


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