खातिरदारी
खातिरदारी
'आया होगा फिर उसी सुमन का फोन।' घंटी बजी तो मीरा धीमे से बुदबुदाई।
आधे घंटे शेखर फ़ोन पर ही लगा रहा। उसकी हंसी-ठहाकों की आवाजों से मीरा का ह्रदय जलने लगा। बेचारे शेखर को क्या पता था कि उसकी एक -एक हरकत पर मीरा नजर गड़ाए हुए है।
फ़ोन ख़त्म हुआ तो मीरा ने आखिर शेखर को बता ही दिया: "सुनो ये क्या लगा रखा है। सुबह सारे व्हाट्सप्प मैसेज देखे थे हमने। ये सुमन ने क्या- क्या नहीं भेजा हुआ आपको। कैसे- कैसे वीडियो और चुटकले। कॉल लॉग भी देखा है -पिछले एक महीने से आप दोनों की रोज कम से कम दो -तीन बार बात होती है।"
"तो ?"
शेखर का जवाब सुन मीरा गुस्से में फटने वाली थी पर इतनी लम्बी शादी के बाद ऐसे ही कैसे किसी परायी स्त्री को पति से इतनी नजदीकियां बढ़ाने देती। पति को कैसे भी समझाना-बुझाना जरूरी था। वो नौकरी नहीं करती, बच्चे भी छोटे हैं। घर -गृहस्थी तो बचा कर ही चलना पड़ेगा। सो अपने गुस्से में काबू कर बोली:
"देखो, मैं बात को बढ़ाना नहीं चाहती पर मुझे ये ---"
उसकी बात पूरी होती इससे पहले ही घर की घंटी बजी।
"अरे सुमन को बुलाया था कुछ कागज़ देने के लिए। उसी ने घंटी बजाई होगी।' इतना कह शेखर ने लपक के दरवाजा खोला।
"आओ सुमन आओ कब से तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा हूँ !"
पति की बातें मीरा के कानों में पडी तो उसने निश्चय किया की वह इस सुमन की बच्ची का चेहरा भी नहीं देखेगी। बिना सुमन की और देखे वह किचन की तरफ बढ़ ही रही थी की सुमन ने उसका अभिवादन किया।
"नमस्ते भाभी जी "
मीरा मुड़ी।
सामने सुमन को देख, हड़बड़ाहट में जवाब दिए बिना ही रसोई की तरफ चल पड़ी जलपान की व्यवस्था करने।
छह फुट लम्बे दाढ़ी मूँछ वाले सुमन जी के लिए।