में और दुनिया
में और दुनिया
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शाम की तनहाई,
रात की गहराई
फिर कोसने देखो
ज़ालिम सुबह आयी।
दूर देश जा बसेहो
दुश्मन को छलनी करने
मन को मलिन करने
ये नज़रे छिनाल आयी।
ऐसे बन के बैठे
ये सफेदपोष जिनको
रस्ते रूकी बेटी की
पलभर न याद आयी।
कैसें बयॉं करू मैं
लिखुं कुछ काव्यमाला
पढने बैठा जो कोई
कहे निबंधमाला।
क्यौं आन पडी ज़रूरत
इन अंधो की फौज को
आ जाओ लौटकर तुम
अब तो सहा न जाये।
पुरी करू कविता
जो दिल को समज लेता
वरना कहे दुनिया
ये 'सुर्यांश' कुछ भी लिखता।