(समभाव)
(समभाव)
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जिंदगी की भोर है, जिंदगी की शाम है,
पाप पून्य कुछ नहीं सब विधी विधान है।
जो लिखा पढ़ा यहाँ, वही पढ़ा वही जपा,
श्रेष्ठता की किताबों ने कितनों को छला,
जाप, पाप, पुनः सब मनुष्य के प्रपंच हैं,
खुद की श्रेष्ठता के साधन व्युत्पन्न हैं,
तुम क्यों तुम नहीं, हम क्यों हम नहीं,
जिंदगी के मेल में बेमेल हम नहीं,
एक का विधान है तो एक ही निधान है,
जन्म मरण कुछ नहीं मनुज परिधान है।
अशुभ शुभ हो गया, दृष्टि में समभाव हो,
इस ब्रह्मांड में एकता का भाव हो।