ग़ज़ल - कल मेरा अच्छा मुकद्दर हो न हो
ग़ज़ल - कल मेरा अच्छा मुकद्दर हो न हो
कल मेरा अच्छा मुकद्दर हो न हो।
कौन जाने साथ पल भर हो न हो।
चल पड़े झोली उठा कर राह पर।
फ़िर सफर में साथ रहबर हो न हो।
साथ मयखाना रहे तो बात है।
रास्ते में मय मयस्सर हो न हो।
खूब महफ़िल आज लें मिलके सजा।
साथ अपने ये सुख़नवर हो न हो।
बंद कर लूँ आँख में उसकी छवि।
आज है जो कल वो दिलबर हो न हो।
इस जवानी के मज़े तुम खूब लो।
कौन जाने कल ये अवसर हो न हो।
लो सजा सपने सुहाने ख्वाब में।
खूबसूरत सा ये मंज़र हो न हो।
आज ही कर दो हमारा क़त्ल तुम।
फिर तुम्हारे पास खंजर हो न हो।
जब नया हो कर्मचारी दाब दो।
कल पता क्या आपका डर हो न हो।
खींच लो तस्वीर अपनी साथ में।
राह में फ़िर ये समंदर हो न हो।
सोच कर वादे किया कर याद रख।
क्या पता पूरी क़सम हर हो न हो।
मंदिरों का हो गया है अब समय।
देर की दर्शन मनोहर हो न हो।
सुबह को 'अवि' झांकता है प्यार से।
शाम को बादल की चादर हो न हो।
