माँ
माँ
स्वरांगी साने की कुछ कविताएँ
माँ- 1
माँ तुम बुहारती रही घर
और सोचती रही
साफ़ है दुनिया
मेरी नानी
और तुम्हारी नानी भी
हर बार बीनती रही दर्द
हटाती रही अँधेरा
सदियों से लगाते हुए झाड़ू
नहीं कर सकी स्वच्छ
मन और दुनिया
मुझे भी कहती हो
यही करने को
क्या गर्त में डूबी दुनिया को
साफ़ करने के लिए ही
पैदा करती हो बेटियाँ?
--+
माँ- 2
ये मेरी माँ का बगीचा है
इस नीम के पेड़ से गिनती है
वह मेरे भैया की उम्र
पैदा हुआ था भैया
तब लगाया था नीम
कि उसी तरह
ऊँचा उठेगा भैया
पकड़ रखेगा जड़ मजबूती से
देगा ठंडी हवा और छाया भी
बुढ़ापे में
मुझे वो तौलती है
तुलसी के साथ
हर स्थिति में पवित्र रहने का विश्वास है
तुलसी और मुझसे
इस वटवृक्ष को
मानती है अपना पति
सुख-दु:ख में
दृढ़ता से
खड़ा रहने वाला सहारा
उसके बगीचे से आती है
मिट्टी की महक
और ताज़ी हवा
हिलते हरे पत्तों के साथ
ये माँ का घर है
करीने से सजा हुआ
घर में रहता है हमेशा सुवास
और ताजापन साथ-साथ
ये माँ की रसोई है
उसे पसंद नहीं भोजन का बासी होना
सुबह वह देती है
चिड़ियों को दाना
बिल्ली को दूध
रोटी कुत्ते को
और बनाती है ताज़ा गो ग्रास
वह हर जगह होती है
हर समय होती है
हम कभी भी पहुँच जाते हैं
और माँ होती है
जादू की कुंजी की तरह
किसी रात डरते हैं
तो पहुँचते हैं
माँ के पास बेखौफ़ सोने
किसी दिन सिर दबवाने
तो कभी बेतुके सवालों के साथ भी
‘मैं मरने तो नहीं वाली न’
और माँ देती है जवाब
‘ना रे, तुझे तो लंबा जीना है’
हम निश्चिंत हो जाते हैं
माँ कभी झूठ नहीं बोलती
जैसे
माँ की बात सुनते हैं
यमदूत भी
माँ उन्हें भी कहती है
‘ना, अभी मेरे घर मत आना’
और
आ ही जाते हैं कभी
तो देती है
शायद माँ उन्हें भी
चुपके से दही भात
और बचा लेती है
पूरे घर को बासा होने से।
----
माँ- 3
माँ तुम्हारी चौखट से
किसी दिन
गाजे बाजे के साथ
निकल जाऊँगी बाहर
और तुम नहीं दोगी हिदायत
शाम ढले लौटने की
मेरे पराए हो जाने में
धन्य हो जाओगी तुम
गोया इसीलिए सहेजा था तुमने मुझे
मैं पराएपन के एहसास के साथ
प्रवेश करूँगी
नई दहलीज़
नई सीमा रेखा में
छिटक जाऊँगी
रंग कर्म और सृजन से
भोगूँगी नए सृजन की पीड़ा
बूँद बूँद
पसीने से सींचती
सँजोती
माँ
किसी दिन मैं भी बुढ़ा जाऊँगी।
................
माँ- 4
माँ याद आ रहा है
वह दिन
जब मैंने रौंद डाले थे
कुछ अपने ही बनाए मिट्टी के घर
कुछ चिड़ियों के घोंसले
खोद डाली थी क्यारी
फिर किसी दिन
पकड़ लाई थी तितलियाँ
तोते को पालना चाहती थी
कुत्ते के गले में डालना चाहती थी जंजीर
तुमने डाँटा था बहुत
नहीं तोड़ते उन चीज़ों को
जिन्हें जोड़ना होता है कठिन
कई सालों तक सोचती रही
तुमने किस पाठशाला से सीखा
अहिंसा का इतना बड़ा पाठ
मैं भी
बस थोड़ी सी धूप देकर
खिलते देखना चाहती हूँ
कोई पौधा
बोना चाहती हूँ
तुलसी के चौरे में
थोड़ी सी उजास।
...................
माँ- 5
श्यामा के गुड्डे से
ब्याही मैंने अपनी गुड़िया
कहाँ सिखलाया उसे
कि कैसे रहे ससुराल में
कैसे रिझाए पिया को
उसे तो आता ही नहीं था खाना बनाना
कहाँ आता था उसे बच्चे खिलाना
तब तो मुझे भी नहीं आती थी
घर-गृहस्थी की बात
कैसे रिझाती गुड़िया को
मेरी माँ को पता है
कैसे छोटी बात
बतंगड़ बन जाती है
और
कैसे मचता है बावेला।
वो सिखा रही है मुझे
बनाना खाना
निभाना ससुराल में
मेरी गुड़िया तो
बिना इन सबके भी खुश थी
उसकी आँखों में तो कभी नहीं आए आँसू
गुड्डा-गुड्डी हँसते थे
बिना आवाज़ की हँसी
तभी समझाती है माँ
हमारी हँसी में आवाज़ है
इसलिए तो मिली है
रुलाई बिना आवाज़ की।
दु:ख को छिपाना सिखा रही मेरी माँ
मुझे लड़की से
गुड़िया बना रही है
मैं अपनी गुड़िया में
अपनी बेटी देखती थी।
-------
माँ- 6
किसी आदमी का खत्म हो जाना
घटित होता है धीरे-धीरे
चलते-चलते
अचानक ठिठक जाती है सड़क
दे दिया जाता है नाम मुकाम।
धीरे-धीरे
बहुत धीरे
एक लड़की बड़ी होती है
और गुज़र जाती है
वक्त से पहले।
धीरे-धीरे ही तो बहती है हवा
जब पेड़ को सहलाती है
पत्ते हवा के साथ होते हैं
पेड़ से दूर पीले बनते हैं
हरे रंग को छोड़ना
कितना कठिन होता है
पत्तों के लिए।
धीरे-धीरे
माँ की आँखें पनिया जाती हैं
रास्ता टोहते बच्चों की
बच्चे कुल्फी चूसते हैं
और धीरे-धीरे
चूस लेते हैं
खून अपने आपका।
माँ टकटकी लगाए रहती है
बच्चों में समा जाता है पानी
माँ
बच्चों का बड़ा होना देखती है
कितने धीरे
होता है यह सब
और घटित हो जाता है
बहुत कुछ।
----
माँ- 7
तुम्हें जन्म दूँ कर्ण की तरह
और भूल जाऊँ
या पैदा करूँ तुम्हें अभिमन्यु की तरह
एक संभावना यह भी है कि
मार दूँ तुम्हें अपने ही भीतर
अंदर की औरत की इच्छा
देखूँ दूसरे बच्चों में
सिखाऊँ उन बच्चों को
शेर जैसा चलना
हाथी-सा मस्त रहना
हंस-सा प्रेम करना
और
गरुड़-सा ऊँचा उड़ना।
उसे सिखाऊँ यह भी
काँटों और कीचड़ में रहकर खिलना
घास की तरह झुकना
बाँस की तरह तनना
पर मेरे बच्चे
तुम्हें यह सब नहीं सिखा पाऊँगी
मैं
तुम्हें नहीं देना चाहती
कछुए-सा सरकता
केंचुएँ-सा रेंगता
खरगोश-सा डरा हुआ
और
नागफनी सा कँटीला जीवन।
इस विरासत को
नहीं बढ़ाना चाहती आगे।
दुनिया बहुत सुंदर है
पर तुम्हें गिद्धों से नहीं बचा सकती मैं।
मुझे क्षमा करना मेरे बच्चे
तुम्हें पैदा करने की हिम्मत
मुझमें नहीं
मैं नहीं देख सकती
हारता तुम्हें।
---
माँ- 8
बेटी आने वाली है
यह सोच कर
उसकी आँखें सुपर बाजार हो जाती हैं
और वो सुपर वुमन।
पूरे मोहल्ले को खबर कर देती है
कहती है- दिन ही कितने बचे हैं, कितने काम हैं
कुछ उसके सामने
कुछ पीठ पीछे हँसते हैं
कि बेटी न हुई
शहज़ादी हो गई
पर उसके लिए तो
ब्याहता बेटी भी
किसी परी से कम नहीं होती।
आ जाती है बेटी
तो वो चक्करघिन्नी हो जाती है।
याद कर-कर के बनाती है
बेटी की पसंद की चीज़ें
बेटी सुस्ताती है
इस कमरे से
उस कमरे में
पुराने दिनों की तरह
पूरे घर को बिखेर देती है
लेकिन वो कुछ नहीं कहती
जानती है बेटी के जाते ही
पूरा घर खाली हो जाएगा।
तब तक इस फैलाव में वो
दोनों का विस्तार देखती है।
बेटी के जाने के दिन आते ही
वो नसीहतें देने लगती है
डाँट-फटकार भी
कि कितना फैला दिया है
अब कैसे समेटेगी?
साथ में देती जाती है खुद ही कुछ-कुछ
ये भी रख ले, और ये भी
बेटी तुनकती रहती है
क्यों बढ़ा रही हो सामान मेरा
वो कुछ नहीं कहती
कैसे कह दे
कि
बेटी तो जाते हुए उसकी आंखें ही ले जा रही है
और छोड़े जा रही कोरी प्रतीक्षा।
-----
माँ- 9
घड़ी चिल्लाती है अल सुबह
और हड़बड़ाकर जाग जाते हैं हम।
फिर दिन भर कितने जतन करते हैं
कभी घड़ी से तेज़ भागने के
कभी उसके साथ होने के
देरी की गुंजाइश ही नहीं होती कभी
बजते रहते हैं ज़िंदा होने के ठोंके।
पूरे दिन होती रहती है टिकटिक धीरे-धीरे
और आपाधापी तेज़-तेज़।
रात गए
बंद करना होता है दिन भर का स्क्रीन
कि ऑन लाइन दिखता है कोई दोस्त
पूछना चाहते हैं इतना ही-और कैसे हो?
कि घड़ी ताकीद देती-सी लगती है
पढ़नी होती है कोई किताब
लालच खींचता है टीवी देखने का
पर घड़ी लगभग आदेश देती है
सो जाओ तुरंत।
रात कभी खुलती हैं आँखें
तो सीधी घड़ी से जा भिड़ती हैं
धमकाती लगती है
उसकी सुइयाँ
सो जाते हैं किसी अच्छे बच्चे की तरह।
सुबह
फिर करता है
कुछ और देर
सोने का मन
पर माँ नहीं होती आसपास
जो अपने हिस्से का समय दे देती थी हमें
कि हम सो पाएँ मीठी नींद।
काश !
घड़ी हो जाती माँ
जिससे कह पाते
अनादि काल तक
पूरे अधिकार से
‘दस मिनट न प्लीज़।’
----
माँ- 10
आसमान में उड़ती हर चीज़ दिखाती है
कौआ, तोता,मैना, चिड़िया, कबूतर
पतंग, हवाई जहाज़ भी
हर उड़ती चीज़ देख वह ताली बजाती है।
ज़मीन पर भागती-दौड़ती
चलती-फिरती
बिल्ली-गाय, बकरी
और कार, दुपहिया
देख भी वह खुश होती है
सबसे परिचय कराते-कराते
वह दिखाती है उसे
ये हैं लोग और उनके चेहरे
वह ताली नहीं बजा पाती
हठात अपने नन्हें हाथ
खुले मुँह पर रख देती है
अनजानापन उसकी आँखों में होता है
और
यह भी कुछ समझा नहीं पाती उसे।
...