“कैक्टस”
“कैक्टस”
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और कब तक किया करूँ
मैं इंतज़ार…
किसी ख़ूबसूरत से फूल के
खिलने का
अपने दिल के उपवन में।
भाव-विभोर हो उठूँ मैं
जिसकी ख़ुश्बू से
और मंत्रमुग्ध कर दे
जिसका सौंदर्य मुझे।
फिर…
हमेशा की तरह,
थक कर, उदास हो कर
खिन्न हो कर, निराश हो कर
झुकता हूँ…
और चूम लेता हूँ
उस सदाबहार
कैक्टस रूपी दर्द को।
होंटों पर छलक आने वालीं
रक्त की नन्ही-नन्ही
कुछ गर्म सी
बूंदों की…
परवाह किए बिना।।