पापा
पापा
एक ऐसी कशमकश थी
सोचा लिखूँ तो किसके उपर?
पूछा किसी से तो जवाब मिला
पूछ खुद से, झाँक कर देख अपने अंदर।
मिला जवाब अपने ही दिल से
दिल ने कहा लिख अपने पिता के उपर।
लम्बे से कठोर से थे तन कर वो चलते थे,
पिघला दिया था उनको अपने ही बच्चे के जन्म ने।
बडे नाजों से पाला था मुझको
गुड़िया जैसे सजाया था मुझको।
दिन भर की थकान, मेरी झप्पी से उतार लेते थे
कभी ज्यादा प्यार और कभी थोड़ा डाँट लेते थे।
बिन बोले तोहफ़ा लाते और फ़िर तोहफ़ों को संजोते थे।
मानते थे मुझे जान से प्यारी,
मगर बदले में सिर्फ़ एक हँसी वो चाहते थे।
खेलते- खिलखिलाते थे मेरे साथ,
थक कर वह मुझे अपनी बाँहों मे सुला लेते थे।
समझ न थी जब बच्ची थी
बडे होकर यह प्यार समझ में आया,
के क्यूँ मेरी चोट में तकलीफ़
और खुशी में गर्व उन्होने पाया।
जान न सकी आज भी कि, कैसे ख़ुदा ने इतना सुन्दर दिल बनाया
जिसने बिन बोले ही मेरी हर दुविधा को सुलझाया।
आज दूरी है उनमें और मुझ में हज़ारों मीलों की,
मगर तब भी दिल ने उनका ही नाम बतलाया।