यह लाल इश्क यह मलाल इश्क

यह लाल इश्क यह मलाल इश्क

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ऋतु वसंत का समय था। धरती रंगों से सजी थी। चारों ओर फूल खिले थे। लाल, पीले, गुलाबी, बैंगनी और जाने कौन कौन से रंगों से सजी धजी धरती किसी दुल्हन से कम न दीख रही थी।चारों ओर की हरियाली अपने अंदर अनेक खुशहालियाँ समेटे हुई थी।


फागुन का महीना था। इस समय तो संपूर्ण वातावरण ही प्रेममय हो जाता है। शादियों का भी यही मौसम होता है। पड़ोसी मजुमदार की बेटी रत्ना की आज शादी है। सुबह से ही नहबतखाने से शहनाई की करूण आवाज़ गूंजने लगी है। रत्ना विदेश में रहती है, उसका होनेवाला पति डैनिश है। दोनों को ही पारंपरिक भारतीय तरीके से शादी करनी थी। इसलिए मजुमदार अंकल ने खुद खड़े रहकर सारी व्यवस्थाएँ की है।


इतनी खुशनुमा सुबह है, परंतु मणिकुंतला आज बहुत उदास है। वह इस समय अपने कमरे की खिड़की पर बैठी है। उसकी दृष्टि खिड़की के बाहर स्थित पीपल के पेड़ की ऊपरी शाख पर निबद्ध है। किसी गहरी सोच में है वह। मजूमदार निवास की शहनाई ने इस समय यमन कल्याण की तान छेड़ी। शहनाई का करूण स्वर रह रहकर उसकी उदासी को और बढ़ा देती थी। आँखों से इस समय मणि के एक-दो बूंद अश्रु ढूलक पड़े।


आज उसकी प्रिय सखी रत्ना का विवाह है। इस समय उसे तो खुशी से चहकना चाहिए था। फिर न जाने कब रत्ना से भेंट हो? शादी के बाद वह विदेश में जाकर बसने वाली है। परंतु न जाने क्यों उसका मन रत्ना की खुशी में शामिल होने को नहीं कर रहा था। उसे सब कोलाहलों से दूर यह एकांत अच्छी लग रही थी।


बात यह है कि उसकी दूसरी बार भी शादी तय होते होते रुक गई थी, अथवा रुकनेवाली थी। असीम को वह काॅलेज के दिनों से ही जानती थी। प्रेम तो दोनों के बीच में था ही, परंतु उससे भी बड़ी बात यह थी कि दोनों के हृदय के तार जुड़े हुए थे। वे एक दूसरे की बात बिन कहे ही समझ जाते थे।


काॅलेज के बाद असीम ने भारतीय सेना ज्वाइन कर ली। बरसों से उसका सपना था कि वह एक फौजी अफसर बने। फौजी ट्रेनिंग के बाद उसकी पहली तैनाती कश्मीर के द्रास, क्षेत्र में हुआ। इस समय वह दो वर्ष तक घर न आ पाया था। जब छुट्टी मिली और वह घर आ पाया तो उसने अपने माता -पिता को मणि के घर उसका हाथ मांगने भिजवा दिया।


फौजी अफसर को दामाद के रूप में पाना किसी भी माँ -बाप के लिए बड़े गर्व की बात होनी चाहिए थी। परंतु मणि के पिता, शिशिर, कुछ और ही मिट्टी के बने थे। उन्होंने असीम का रिश्ता यह कहकर ठुकरा दिया कि वह नीची जाति का है।


यहाँ तक कि असीम के माता-पिता मुखर्जी बाबू को समझा बुझाकर हार गए परंतु मणि के पिता टस से मस न हुए। फिर जब मणि ने इस हेतु दाना पानी का त्याग कर दिया तो उसके बाबा कुछ पसीजे। उन्होंने यह शर्त रखी कि यदि दोनों की कुंडलियाँ मिल जाए तो वे इस शादी के लिए तैयार हो सकते हैं।


थोड़ी देर पहले रास्ते में मणि को असीम के परिवार के गगन पंडित जी मिले थे। उन्होंने मणि को देखते ही अपना सिर नकारत्मकता में हिला दिया और मार्ग छोड़कर दूसरी दिशा में चले गए थे। मणि को जो समझना था तभी समझ गई। और तब से उदास होकर यूँ जंगले के पास बैठी हुई है।


रोते रोते अब मणि का बुरा हाल था। आँखे लाल हो चुकी थी।आँखों के कोर में इस समय सूजन भी आ गया था। तब भी वह यूँ मायूस सी वहीं बैठी रही। असीम के अलावा किसी और से शादी की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी।


तभी अचानक उसके कमरे का दरवाजा खुला और माँ असीम को साथ लेकर कमरे के अंदर आई। असीम ने कदम रखते ही हुड़दंग मचा दी। चहकता हुआ बोला,


" तो महारानी साहिबा,आप यहाँ बैठी हैं, उधर रत्ना ने जीद्द पकड़ ली है कि पहली हल्दी वह अपनी बेस्ट फ्रेन्ड के हाथों से ही लगवाएगी।

शादी वाले घर में सब आपको पूछ रहे हैं-- और आप यहाँ बैठी भाव खा रही हैं!!"


कहते हुए असीम ज़रा रुका। उसने स्थिति को भाँपने की जरा कोशिश की। मणि की उदासी जैसे उसको भी स्पर्श करने लग गई थी।


इतनी देर में मणि की माँ उसके पास जा पहुँची। फिर मणि को उदास देखकर उन्होंने सस्नेह उसके सिर पर हाथ रखकर पूछा,

" क्या हुआ बेटी? इस तरह यहाँ क्यों बैठी हो?"


उसी समय मणि की दादी भी लाठी टेकती हुई कमरे मे आ गई और अपनी बहू से बोली,


" मणि की माँ, मणि को जल्दी तैयार करा दो। देखो, असीम उसे लेने आया है। तुमने सुना नहीं रत्ना के घर में सब इसका इंतजार कर रहे हैं?"


फिर असीम की तरफ मुखातिब होकर बोली,

" तू यहाँ खड़ा खड़ा क्या कर रहा है? चल मेरे साथ बाहर आ!"

जब दोनों कमरे से बाहर निकल गए तो मणि की माँ उसको तैयार करने लगी।


अगले दो दिनतक शादीवाले घर में खूब चहल पहल रही। सबलोग विदेशी दामाद की बातों पर खूब हँसने लगे। उसकी गलतियों पर सालियों ने खूब मज़े लिए। यहाँ तक कि रत्ना भी डैनिश की नासमझी के कारण थोड़ी झेंपने लगी थी।


परंतु असीम और मणि ने सारी स्थिति संभाल ली थी। वे दोनों डैनिश और उसके होनेवाले भारतीय रिश्तेदारों के बीच सेतु बने हुए थे। उनको जब भी मौका मिलता वे डैनिश को भारतीय रीति रिवाज़, तौर तरीकों के बारे में बताते जाते थे। डैनिश उनकी संगत में इन दो दिनों में काफी कुछ सीख चुका था।


इसबीच असीम को भी मणि के साथ बीताने का पूरा मौका मिल गया था। उसने मणि से उसकी उदासी का कारण पूछा। तो मणि ने पंडितजी वाला सारा वृत्तांत उसे कह सुनाया। इसपर असीम ने कहा,

" चिंता मत करो। उसका भी कुछ न कुछ उपाय जरूर निकल आएगा। शादी तो तुम्हारी मुझसे ही होगी।"


विदाई के समय रत्ना खूब रो रही थी। अपने माता-पिता, भाई- बहन , सगे-संबंधी और इस मुल्क से बिछड़ने का उसे बड़ा गम था। उसे विदा करते समय उसके घरवालों का भी हृदय फट रहा था। पर ऐसी अवस्था में भी रत्ना ने सखी मणिकुंतला को अलग बुलाकर उसके कान में कहा,


" देखना, अब तेरी भी शादी जल्द हो जाएगी, । असीम मुझे बहुत पसंद आया। अच्छा, तुझे याद है, उसदिन, वह तितली तेरे ऊपर आ बैठी थी।


ऊँ प्रजापतयेः नमः।"


"धत्, तू भी न रत्ना!" कहकर मणि वहाँ से लजाकर भाग गई।

परंतु आश्चर्य!! विदाई के समय रत्ना की कही हुई वह बात एक हफ्ते के अंदर ही फलीभूत हो गई। मणि और असीम की शादी तय हो गई!!

असीम की वापस कार्यक्षेत्र पर जाने की तारीख नजदीक आ रही थी, इसलिए उसके घरवाले उनकी शादी के लिए जल्दी करने लगे। परंतु मणि को यह समझ में नहीं आ रहा था कि उसके बाबा कैसे मान गए? कुंडलियाँ तो नहीं मिली थी। फिर??


मणि ने सोचा कि चलकर असीम से एकबार पूछ ले। परंतु घरवालों ने शादी से पहले असीम से मिलने पर पाबंदी लगा दी। ऐसा रस्म था कि दूल्हा दुल्हन शादी से पहले नहीं मिल सकते थे। फिर शादी के रस्मोंरिवाज में, चहलपहल में, रिश्तेदारों के कहकहों के बीच इतना समय ही नहीं मिल पाया कि वह असीम से बात कर पाए।


सुहागरात को एकांत पाकर उसने उससे पूछा कि यह चमत्कार कैसे संभव हुआ,


" बताओ, असीम, बाबा कैसे इस रिश्ते के लिए राजी हो गए?"

एक शरारतवाली मुस्कान लिए असीम बोला,


" जब मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी?

कहा था न, कि तुम्हारी कुंडली में सिर्फ मैं ही लिखा हूँ।"


अगले दिन द्विरागमन के लिए जब असीम को साथ लेकर मणिकुंतला पुनः अपने घर लौटी तो सभी ने बाहें फैलाकर उन दोनों का स्वागत किया। परंतु मणि की दादी कहीं नजर नहीं आ रही थी। माँ से पूछा तो, उन्होंने बताया कि दादी की तबीयत सुबह से नासाज थी, इसलिए वे अपने कमरे में आराम कर रही हैं।


दोपहर को भोजनोपरांत मणि अपनी प्यारी दादी से मिलने गई। उसकी दादी पलंग पर लेटी हुई थी। उसे देखते ही दादी का चेहरा एकाएक खिल उठा। उन्होंने इशारे से मणि को दरवाजा बंद करके पास बैठने को कहा।


उसकी जिज्ञासा जानकर दादी ने धीरे-धीरे सारा वृत्तांत उसे कह सुनाया।


दादी की आखिरी ख्वाहिश थी कि मरने से पहले अपनी पोती का हाथ पीले होते हुए देखें। परंतु अपनी प्यारी पोती को जिस किसी के भी गले बांध देना उन्हें मंजूर न था। अपने मधुर स्वभाव के कारण असीम उन्हें पहले से ही पसंद था। उनकी पारखी नज़र ने यह परख लिया था कि मणि को केवल वही बंदा खुश रख सकता है।


इसलिए उन्होंने पंडित जी को बुलवाकर कुंडलियाँ बदलने को कहा। मणि के पिता इस बात को अबतक नहीं जानते थे।


उन्होने मणि से कहा,


" दीदीभाई, यह राज अपने तक ही सीमित रखना। मेरे जाने के बाद भी अपने पिता से कभी इसका जिक्र भी मत करना। जानती तो हो कि मेरा बेटा ज़रा पुराने ख्यालातों वाला है। इसलिए वह अपना बाप-दादा की तरह पितृसत्तात्मकता का कायल है। पर यकीन कर, मेरी तरह उसे भी तेरी बहुत फिकर है।"


" क्या असीम को यह बात बता सकती हूँ, दादी?"


" वह तो पहले से ही सबकुछ जानता है। अरे पगली, उसे नहीं बताती तो उसके पंडितजी को मेरे पास कौन ले आता?


वह आधुनिक विचारों वाला लड़का है। उससे मुझे कोई चिंता नहीं है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि तुझे बहुत चाहता है। इसलिए तेरे लिए कुछ भी कर सकता है।"


" परंतु दादी, यदि इसमें कोई दोष हो? मतलब कि आगे इसके चलते हम दोनों के बीच कोई समस्या उत्पन्न हो जाए ?"


"नहीं, मेरी बच्ची, इसमें कोई दोष नहीं है। बल्कि कुंडलियाँ मिलाकर बेमेल विवाह करवाना ही सबसे बड़ी दोषयुक्त प्रथा है।


फिर, कौन कह सकता है कि पंडितजी की गणना शतप्रतिशत सही है? यह गणना भी तो जन्म समय के आधार किया जाता है। यदि जन्म समय नोट करने में कोई भूलचूक हो जाए तो?


मैं समझती हूँ कि दो लोगों के बीच शादी उनके हृदय के मिलन को आधार मानकर किया जाना चाहिए, ग्रहों अथवा नक्षत्रों के आधार पर नहीं। अब हमारी शादी को ही देख ले। तेरे दादा जी को तो मैंने शादी से पहले एकबार भी नहीं देखा था, उन्हें जानती तक नहीं थी। हालांकि हमारी कुंडलियाँ खूब मिलाई गई थीं।


शादी के बाद पता चला कि हम दो विपरीत गोलार्द्धों के वासी हैं। हमारा तो मन ही कभी नहीं मिला। फिर भी लंबी जिन्दगी साथ बिता दी। लेकिन बता, ऐसी शादी का क्या मतलब है?"


मणिकुंतला फिर भी निश्चिंत नहीं हो पा रही थी। उसे बार बार यही लग रहा था कि एक झूठ पर टिकी उनकी शादी कहीं आगे चलकर टूट न जाए।


उसके चेहरे पर आते जाते भावों को कुछ देर तक पढ़ने के बाद दादी पोती का हाथ अपने हाथ में लेकर स्नेहपूर्वक बोली,


" दीदीभाई, एक और राज़ की बात तुझे बताऊं? तेरे माँ- बाप ने भी प्रेम -विवाह किया था। उनकी कुंडलियाँ भी नहीं मिलती थी।


मैंने तब इसी उपाय से उनकी शादी करवाई थी।


देख, दोनों खुश है न?"


दादी की बात सुनकर विस्मय से मणि की आँखें फटी की फटी रह गईं। दादी अपने परिवार के लिए इतना कुछ सोचती हैं ? उसकी शादी के लिए अपने बेटे के खिलाफ भी चली गईं और तो और अपने बच्चे की भी शादी ऐसे तरीके से करवाई थी। पापा से भी वह इतना प्यार करती हैं कि उनके मन को ठेस न पहुँचे। इसलिए गुपचुप तरीके से सबका भला करती रही।


प्राचीन समय की होकर भी दादी के ख्यालात कितने आधुनिक थे!!

इसके बाद मणि अपनी दादी से लिपट गई।



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