Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Chandra Prabha

Others

4.5  

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वे दो लाचार आँखें

वे दो लाचार आँखें

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बहुत दिनों बाद रजनी को अपने मायके जाने का मौका मिला था। माँ बहुत दिनों से बीमार चल रही थीं। उनको देख आने को मन था। सबसे मिलना हो जायेगा और माँ को भी देख आयेगी, दोनों काम हो जायेंगे। मन में बहुत खुशी थी। पीहर पहुंची। सबसे मिली जुली। दोपहर को माँ को खिलाने स्वयं सत्तो भाभी थाली परसकर लाईं और माँ को खिलाना शुरू किया।

रजनी सोच रही थी कि सत्तो भाभी कितनी अच्छी हैं कितनी सेवा कर रही हैं। पर तभी माँ की आवाज़ सुनी "नहीं, नहीं नहीं खाऊँगी।" और सत्तो भाभी मनुहार कर रहीं थीं-

"नहीं अम्माँ जी, थोड़ा खा लो, अच्छी अम्माँ जी, खीरा खा लो। देखो, कितना पतला -­पतला काटा है कितना अच्छा है। नमक लगाया है। आपको तो पसन्द है। खालो अम्माँ जी।"

माँ बार बार हाथ से हटा रहीं थीं, डर रहीं थीं, मुँह में लेने से मनाकर रहीं थीं, और सत्तो भाभी थीं कि प्यार से माँ के मुँह में दिए जा रहीं थीं। उनके इस तरह मना करने के बावजूद भी।

"लो मना मत करो, खाओ, नहीं कैसे खाओगी, छोड़ो मत, बहुत महँगा खीरा आता है। केवल आपके लिए मँगाया है। आपको खाना होगा।" आवाज सत्तो भाभी ने मीठी बनाकर कहा, मानों मिश्रीघोल रही हो, बहुत ख्याल कर रही हों।

माँ की हालत और विवश दशा को और सत्तो भाभी की प्यारभरी मनुहार कुछ देर तक रजनी देखती रही, फिर माँ के पास आकर बोली, " अम्माँ, आप खा क्यों नहीं लेतीं। भाभी कितने प्यार से दे रही हैं।" देखकर तो यही लग रहा था कि बहू सास का बहुत ख्याल कर रही है।

माँ बेटी को कुछ कह न सकी, करुण दशा से उसे देखती रहीं। बहू से डरती थीं, बहू के सामने कुछ बोल नहीं पा रही थीं। शेर और बकरी वाली हालत हो रही थी।

रजनी समझ गई कि कुछ तो गड़बड़ है। अम्माँ बोल नहीं रहीं, पर खीरा मुँह में जाते ही कैसा तो उन्हें परेशानी वाला लग रहा है। वह पास आई और बोली "आप खा क्यों नहीं रहीं, क्या खीरा ठीक नहीं है" जवाब दिया सत्तो भाभी ने, "खीरा तो बहुत अच्छा है, मैं खुद काटकर लाई हूँ, मैनें देखा है।"

रजनी ने खीरे का एक चन्दा उठाया और चखने के लिए मुँह में रखा, थोड़ा सा लेते ही पता चल गया, खीरा बहुत कड़वा था, खाने काबिल न था, ऊपर से उस पर पड़ा तेज नमक और मुँह जला रहा था।

उसने कहा "यह तो बहुत कड़वा है, भाभी आप इसे मत खिलाईये। दूसरा खीरा है, तो मै काट कर ला देती हूँ। 

सत्तो भाभी का चेहरा देखते ही बनता था। उनका झूठ पकड़ा गया था। बोली "हाँ दूसरा खीरा है।" पर अम्माँ ने मना कर दिया। बोली "अब पेट भर गया, नहीं खाऊँगीं।" वे बहू की बिना मर्जी के कुछ करने का साहस नहीं रखती थीं।

माँ की यह करुण दशा देखकर रजनी की आँखें भर आईं। इन्हीं सत्तो भाभी के विवाह कर आने पर माँ ने कितना लाड़ किया था। अपने हाथ से बना बनाकर कितनी चीजें खिलाई थीं। उनका सब तरह से ध्यान रखा था लाड़ प्यार किया था। आज ये ही बहू सब भूल गई। कच्चा पक्का खाना और कड़वा खीरा उन्हें जिद करके खिला रही थी। 

माँ को चावल पसन्द थे। पर खाने में रोटी दी जा रही थी। यह कहकर कि डाक्टर ने चावल देने को मना किया है। पर बात ऐसी नहीं थी। सत्तो भाभी को भी चावल बहुत पसन्द थे। पर वे खड़े चावल बनवाती थीं। जो थोड़े कड़े रहते थे। पर अम्माँ से इतने खड़े चावल नहीं खाये जाते थे, उन्हें ज्यादा गले हुए चावल पसन्द थे,जिसे कहते हैं कि चावल भुत हो गया। तो सत्तो भाभी ने उन्हें चावल देने ही छोड़ दिए।

माँ के दाँतों से रोटी ठीक से चबती नहीं थी। रोटी भी उन्हें मुलायम चाहिए थी, पर जो कड़ी सिकी हुई ही आती थी। 

सत्तो भाभी खाना खिलाती क्या थीं, ठूँसती थीं। अम्माँ की बूढ़ी उम्र, दाँत कुछ गिर गए थे, कुछ घिस गए थे, ठीक से चबा नहीं पाती थीं। जल्दी खा नहीं पाती थीं। खाने की स्पीड धीमी हो गई थी। पर सत्तो भाभी थीं कि उन्हें जल्दी जल्दी मुँह में दिए जाती थीं गस्से पर गस्से। वह उनके मुँह में भर जाते थे। और जब सटक नहीं पाती थीं, चबा नहीं पाती थीं, उलटी हो जाती थी। उसके बाद सत्तो भाभी थाली हटा देती थी कि अब नहीं खायेंगी। 

अम्माँ भूखी रह जाती थीं। निरीह आँखों से देखती रह जाती थीं,बेटी से कहती थीं "तुम कुछ मत कहना। मुझे पता चल गया है कि मुझे अब ऐसे ही रहना है।"

उनके होंठ पपड़ा गए थे बिना पानी के। रजनी ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया, उन्हें थोड़ी शान्ति मिली। तभी सत्तो भाभी आ गईं, उन्होनें पानी पिलाते देख लिया। 

ज़ोर से वे बोलीं "आप तो पानी पिलाकर चली जायेंगीं। ये बार बार पेशाब करेंगी कौन उठाकर बाथरूम ले जायेगा? या बिस्तरे में निकाल देंगी, तो कौन बार बार चादर पलटेगा?"

अम्माँ को ठीक से कुल्ला कराने के लिए भी पानी नहीं दिया जाता था। एक चिलमची में दो एक कुल्ले कराकर पानी हटा लिया जाता था। सारा खाना दाँतों में चिपका रह जाता था। मुँह की सफाई भी ठीक से नहीं हो पाती थी। रजनी सोचती रह गई, माँ कितनी सफाई पसन्द थीं, कैसे अच्छे से कुल्ले करना हम लोगों को सिखाया था। 

 

शाम को रजनी खुद खिलाने बैठी, प्यार से खिलाया, तो माँ ने खा लिया, दोपहर से भूखी थीं। सत्तो भाभी ने देखा तो बोलीं "आपने तो खिला दिया, और अब जो बार बार टटृा करेंगीं उसे कौन देखेगा? उन्होंने हिकारत से टटृा शब्द कहा। 

 

वे तो यह कहकर चली गईं। माँ शरीर से क्षीण जरूर हो गई थीं पर मस्तिष्क पूरा जाग्रत था, संवेदन शील था। हाथ पैर शिथिल हुए थे, मस्तिष्क नहीं। 

वे बेटी से बोलीं "तुम यहाँ मत आना। तुम्हारी यहाँ कोई इज़्ज़त नहीं है। तुम मेरे प्यार की वजह से इतनी दूर से आती हो, और यहाँ बातें सुनती हो।"

माँ से सत्तो भाभी बोलती थीं, "आप इन्हें आने को कह देती हैं। आपकी पता है कि कितनी दूर से ये खर्चा करके आती हैं, आने में पूरे छत्तीस घंटे लगते हैं।"

सुनकर माँ कहतीं "मुझे नहीं पता था कि तुम इतनी दिक्कत से इतना खर्चा करके यहाँ आती हो। यहाँ मत आया करो।"

रजनी उनके लिए पतली नरम खादी की बिना किनारी की सफेद धोती ले आई थी। उसे देखकर माँ बहुत खुश हुईं, वह उनकी पसन्द की अच्छी धोती थी। अपने जमाने में उन्होंनें हमेशा अच्छे कपड़े पहने थे। सत्तो भाभी उनके लिए मिल की बनी सफेद सस्ती वाली धोतियाँ लाती थीं। जो दो एक बार धुलने पर ही मैली एवं झीनी लगने लगती थीं। और माँ को व पसन्द नहीं थीं, यह रजनी जानती थी। वे धोती नौकरानी के लायक भी नहीं थीं।

रजनी की लाई चार धोतियों को देखकर सत्तो भाभी माँ से बोलीं-

"लड़की की लाई धोती आप छाती पर धर लोगी? वैसे तो कहती हो कि लड़की का लाया सामान नहीं चाहिए" फिर बोलीं "पैसे तो हमें भरने पड़ेगें।"

पर सत्तो भाभी ने धोतियों के पैसे भी नहीं दिए और वे धोतियाँ भी उठाकर अपने पास रख लीं, माँ को पहनने को नहीं मिलीं। उन्होंने वह नरम खादी के थान से कटवाकर माँ की धोती के लिए लाया गया कपड़ा अपने दामाद को कुर्ते सिलवाने के लिए दे दिया।

रजनी माँ के लिए शॉल लाई थी सुन्दर सा, भेड़ की ऊन से बुना हुआ। भेड़ की ऊन कटवा कर साफ करवा कर वहीं चम्बा में वह शाल करघे पर बुनवाया था। स्पेशल था, गर्म बहुत था। सफेद रंग का थोड़ा क्रीम रंग लिए हुए था। उसपर हरे धागे से किनारी पर कढ़ाई थी व बीच में छोटी बूटियाँ थीं। रजनी ने माँ को कहा था कि संभालकर ओढ़ना। माँ को शॉल बहुत पसन्द आया पर, जब पता चला कि इतनी मेहनत से बना है, तो उन्होंने उसे संभालकर ओढ़ा और कभी कभी ओढ़ने के लिए रख लिया। 

सत्तो भाभी ने माँ से बिना पूछे वह शॉल काम करने वाली नौकरानी को दे दिया। बोलीं, "अच्छा गर्म शॉल है नौकरानी के काम आ जायेगा, अम्माँ जी तो ओढ़ती नहीं है।"

माँ नहाने के बाद बैठकर रामरक्षा स्तोत्र, हनुमान चालीसा पढ़ती थीं, माला करती थीं। सत्तो भाभी ने वह सब उठाकर रख दिया। कारण बताया, "खाना लग जाता है, और ये माला करती रहती हैं,या पढ़ती रहती हैं, न रहेगा बाँस, न बजेगी बांसुरी।"

अम्माँ यह भी नहीं कह सकीं कि दिन भर बिस्तर पर खाली पड़ी रहती हैं, माला करती रहती थीं, तो समय कट जाता था, भगवान का नाम जप हो जाता था। कहती भी तो उनकी कौन सुनता। 

अम्मा सिर हमेशा दही या मठ्ठे से धोतीं आई थीं पर बहू को यह पसन्द नहीं आया। कौन उन्हें दही या मठ्ठा लाकर दे। बहू ने तेज खुशबू वाला कड़ा सा टाटा का शैम्पू लाकर रख दिया, जो उनके बालों को भूरा सा बना देता था। जबकि उनके बाल अभी भी चिकने रेशम से काले थे। तेज शैम्पू से उनका सिर भी दु:खता था पर वे कुछ कह नहीं पाती थीं।

हाथ धोने का पूरा साबुन उन्हें पसन्द था, पर उनकी बहू साबुन आधा काटकर उन्हें देती थी, साबुन में भी कंजूसी करती थी। उनकी बेटी रजनी ने लिक्विड सोप उनके लिए लाकर रखा, पर वह भी उन्हें नहीं दिया गया। 

नहाने के लिए उनको सोते से उठा दिया जाता था। कामवाली बाई नहलाने आती थी। नहाने का पूरा गर्म पानी भी उन्हें नहीं मिलता था। ठण्डे पानी से वे "हाय" "हाय" करती रह जाती थीं। तुरन्त बदन पोंछकर उन्हें कपड़े पहना दिए जाते, बदन ठीक से पोंछा भी नहीं जाता था, वे काँपती रहती थीं। अन्दर से बदन गीला रहता,ऊपर से ब्लाउज व स्वेटर पहना दिया जाता। मौजा भी पैर में पहना दिया जाता जबकि पैर पूरे सूख भी नहीं पाते थे। फल यह हुआ पैर में खारवे हो गए जोड़ दुःखते थे।

उनका पलंग ढीला हो गया था। उसका गद्दा बरसों से बदला नहीं गया था। एकदम बेकार हो गया था। न जाने कब से उसकी रूई नहीं पलटी गई थी। ओढ़ने की रजाई भारी थी, जबकि उन्हें हल्की रजाई की जरूरत थी।

जिन्होंने अपनी स्वस्थ हालत में सारे घर का ध्यान रखा, अपने हाथ से पकाकर स्वादिष्ट भोजन कराया, उनका यह हाल था। 

उनकी बेटी आई तो अलफाँजो आम लाई थी। उसे सबने खाया पर अम्माँ को नहीं दिया गया। सत्तो भाभी ने कहा "ये बद्रीनाथ गई थीं, वहाँ आम छोड़ दिया था।"

अम्माँ को जब बेटी ने बताया कि वह अलफाँजो आम लाई थी, तोवे बोलीं " मैं खाती नहीं, पर हाथ में लेकर देख तो लेती।"

जब बेटी की बेटी को शादी हुई, तो सबको आने को कहा गया। अम्माँ बीमार थीं उन्हें नहीं कहा। तो वे बोली," मैं आ तो नहीं सकती थी, पर मुझे निमंत्रण तो दिया होता।"

अम्माँ के भाई की मृत्यु हुई, तो वे रोई कि अब मेरे पास किसी की चिट्ठी नहीं आती। उनके भाई हर हफ्ते उन्हें एक पोस्टकार्ड पर चिठ्ठी भेजते थे, चाहे उसमें दो ही लाईनें लिखी रहती थीं कि यहाँ सब कुशल से है, वहाँ सब कुशल से होगें, सबको यथा योग्य प्रणाम\ व प्यार, तुम्हारा भाई। 

भगवान लम्बी उम्र दे, तो साथ में स्वास्थ्य भी दे कि दूसरों पर निर्मर न रहता पड़े। बड़े आदमी की वृद्धावस्था में सेवा करने वाले चाहते है कि ये जितनी जल्दी हटें, ठीक है। और उनसे कहते भी हैं कि भगवान से यही मनाओ कि बेटे के हाथ की लकड़ी मिल जाये। 

कभी कभी अम्माँ ज्यादा परेशान होकर खाना छोड़ देतीं। कहतीं कि मैं मरना चाहती हूँ। तो उनका बेटा आता, उन्हें मनाता। अपने हाथ से खिलाता। बेटे का कहना वे टालती नहीं थी। उसे बहुत प्यार करती थीं। पर बहू गुस्से से भन्ना जाती और अपने पति से कहती "आपके पैरों में तकलीफ है, आप क्यों आये यहाँ।"

अम्माँ की आँखें बननी थी। वे दिल्ली जाकर डाक्टर श्रौफ के यहाँ आँख बनवाना चाहती थीं। पर कोई ले नहीं गया। उनकी बहू चाहती थी कि वहाँ जाने की तकलीफ क्यों उठाएँ। पत्नी की बात मानकर बेटे ने माँ को समझाया, "आपको मुझे पर विश्वास है ना? जो मैं कहता हूँ वह करें।" माँ चुप हो गईं। बेटे ने वहीं शहर में आपरेशन आँख का कराया, पर डाक्टर होशियार नहीं था। उसने आँख में लैन्स नहीं डाला, पुराने तरीके से आपरेशन किया। चश्मा दे दिया। बिना चश्मे के दिखाई देना बन्द हो गया। नौबत यहाँ तक आई कि नहाते समय भी चश्मा लगाना पड़ता था। बिना चश्मे के देख नहीं पाती थीं। 

एक आँख का आपरेशन हुआ, दूसरी का नहीं। दूसरी आँख का आपरेशन टलता गया, छह साल निकल गए। आखिर सबके बहुत कहने पर बेटे बहू ने दूसरी आँख का आपरेशन कराया, पर फिर भी दिल्ली डाक्टर श्रौफ के यहाँ नहीं ले गए, उसी डाक्टर के यहाँ आपरेशन कराया, जिसने पहली आंख बिगाड़ी थी। इस बार उसने आँख में लैन्स डाल दिया। अब एक आंख में लैन्स था, एक में नहीं,दोनों आंखों से एक साथ नहीं देख सकती थीं, चश्मे के सहारे एक ही आँख काम करती रही। चश्मा भी ठीक नहीं बना। पढ़ नहीं पाती थीं।

अम्माँ को उठने, चलने, बैठने में दिक्कत होती थी। बेटी सहारा दे देती थी, तो सत्तो भाभी बिगड़ती थीं, "आप सहारा क्यों दे रही हैं? हम नहीं देते सहारा। दो दिन बाद आप तो चली जायेंगी आदत बिगाड़कर, पीछे हम तो नहीं करेंगे।"

 

सत्तो भाभी की नाराजगी का ख्याल कर बेटी ने अम्माँ को सहारा नहीं दिया, जब वे उठकर चलने में लड़खड़ाईं, तो माँ ने बेटी की और देखकर इतना ही कहा, "माँ हूँ मैं तुम्हारी, सहारा नहीं दोगी?" तो बेटी ने उठकर उनका हाथ पकड़ सँमाला। 

अम्माँ को खाना खिलाने के लिए सत्तो भाभी नौकरानी को बैठाने लगीं। अब वही खाना खिलाती थी। क्योंकि बेटा कहते थे कि "पहले अम्माँ को खिलाओ, बाद में हम लेंगें।" तो सत्तो भाभी ने यह सिस्टम शुरू किया कि सास के पास नौकरानी को खाना खिलाने बैठा देती थीं। फिर डायनिंग रूम में, जो वहाँ से दूर था,अपने खाने चली जाती थीं। किसी को पता नहीं चल पाता था कि नौकरानी ने क्या किया, कैसे खिलाया, खाना खाया भी या नहीं।अम्माँ अकेली बेठी नौकरानी के हाथ से खाना खातीं। जब बेटी आकर पूछती कि 'खाना खाया' तो उनका जवाब होता "मैं भूखी रह गई।"

खाना पकाने वाली महाराजिन देर से आती थी, जब तक अम्माँ को खाना मिलता, पूरा खाना नहीं बन पाता था, जो बनता भी था,आधा कच्चा पक्का रहता था। उस तरह का खाना उनको परस दिया जाता। बेटे को पता भी नहीं चल पाता था कि माँ को ठीक खाना नहीं मिला। 

बुढ़ाये की दु:खभरी कहानी थी। नौकरानी ज़ोर से गाल पर हाथ लगाकर खींच देती थी, खाल नरम हो गई थी. गाल नुच जाता था। अम्मा रोती थीं कि "इसने मेरा गाल नोच दिया।" गाल लाल हो जाता, उसपर उँगली के निशान रहते। पर सत्तो भाभी नौकरानी को कुछ नहीं कहती और अम्माँ को ही डाँटती। नौकरानी सफाई देती कि मैं तो पुचकार रही थी, नोचा नहीं। 

पूरे जाड़ों अम्माँ के कपड़ों में सीलन रहती। ढंग से कपड़े सूख नहीं पाते थे धूप के अभाव में। उनके कपड़ों पर प्रेस भी नहीं होता था। जबकि नौकर और लोगों के कपड़ों पर प्रेस करता था। बेटी जब आती तो उनके कपड़ों पर प्रेस कर देती, तो वे खुश होकर आशीष देतीं। कहतीं "मेरे लिये इतना क्यों करती हो?"

बेटी ने जाड़ों में अम्माँ के लिए हीटर लाकर रखा, तो सत्तो भाभी के कहने पर भाई ने बहिन को डाँट लगाई "तुम हमें जलील करती हो।" बहिन माँ के लिए डाँट सुन गई, पर हीटर माँ के पास नहीं रहा, सत्तो भाभी उसे उठाकर अपने कमरे में ले गर्ईं कि हमें जरूरत है। 

अम्मा को सुबह रेडियो पर रामायण सुनने का शौक था, पर उनका ट्रांज़िस्टर खराब हुआ, तो बनकर नहीं आया। बेटी ने उनके लिए छोटा सा नया ट्रांज़िस्टर लाकर रखा कि सुबह छ: बजे की रामायण बिस्तरे पर लेटे­-लेटे सुन लिया करेगीं। पर सत्तो भाभी उसे उठाकर ले गर्ईं कि सुबह सुबह हमारी नींद डिस्टर्ब होती है। वे सुबह देर से सोकर उठती थीं और फिर चाय पीते समय उस ट्रांजिस्टर पर न्यूज़ सुनती थीं। अम्माँ के पास ट्रांजिस्टर भी नहीं रहने दिया।

अम्माँ को किसी तरह का आराम नहीं मिला, न वाणी से, न कामों से। जब मुँह से थूक ज्यादा आने लगा, अम्मा बार बार धोती के छोर से उसे पोंछतीं। बेटे ने पेपर नैपकिन का डिब्बा लाकर रखा,पर सत्तो भाभी ने वह डिब्बा हटा दिया कि नैपकिन महँगें आते हैं। उन्होनें फटी धोती के टुकड़े बना कर वहीं रख दिए। मोटी धोती थी, उससे पोंछती थीं, तो उसकी रगड़ से मुँह की खाल दुखती थी,नाक पोंछने पर नाक रगड़कर लाल हो जाती थी। 

जाड़ों में कमोड से ठण्डा पानी जैट से निकलता था। अम्माँ को कमोड भी ठण्डा लगता था, पानी भी ठण्डा ठिठुरन भरा लगता था,पर न तो कमोड पर कोई कपड़ा या कागज रखा गया, नही हल्का गरम पानी उन्हें धोने को दिया गया।

बड़ी उम्र की समस्या भी तभी लोग समझ सकते हैं जब संवेदना हो। नहीं तो यही होता है "जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।"

अम्माँ लेटी रहती थीं, पूजाघर जा नहीं पाती थीं। बेटी के आने पर कहतीं "पूजाघर से मेरे लड्डू गोपाल लाकर मुझे दिखा दो।" वह लाकर उन्हें दिखाती तो लड्डूगोपाल की मूर्ति को हाथ में लेकर सहलातीं, देखती रहतीं फिर रखवा देतीं। कभी घड़ी पास मंगवाकर देखतीं कि क्या बजा है।

लेटे लेटे वे सुबह मन्दिर की घंटियों को आवाज़ सुनतीं तो अनुमान लगातीं कि सुबह के छह बजे गए। नौकर झाडू देने आता तो अंदाज लगातीं कि आठ बज गए। महाराजिन खाना बनाने आती, तो अन्दाज लगातीं कि बारह बज गए। वे पूछतीं भी किससे? कोई उनके पास नहीं बैठता था। कोई उनसे बात करने वाला नहीं था। 

सत्तो भाभी उनपर इतना कड़ा अनुशासन रखती थीं कि माँ को हमेशा दीवार की तरफ मुँह करके लेटना पड़ता था, जिससे एक करवट लेटे लेटे उनका हाथ सूज जाता।

जब वे ज्यादा परेशान और दुखी होतीं तो "मैयाँ, मैयाँ "कहने लगतीं, इस तरह अपनी दिवंगत माँ को याद करतीं, जिन्हें वे मैयाँ कहती थीं। बेटी उनके पास आकर बैठती तो जल्दी उससे इस संकोच में कुछ नहीं कहती थीं, कि वह सोचेगी "बैठते ही काम बता देती हैं।"

बेटियाँ माँ के लिए क्यों नहीं कुछ कर सकती? पढ़ी लिखी बेटियाँ भी क्यों परम्परा के सामने असहाय ही जाती हैं। एक माँ की वे व्यथाभरी भरी आँखें मैंने देखी हैं, वे मेरा पीछा करती रहती हैं।सोचा था, कभी इस व्यथा को स्वर दूंगी, इसपर एक उपन्यास लिखूंगी, पर अभी बस एक कहानी ही। उपन्यास तो मन में ढल रहा है, बड़ों की कितनी अनकही व्यथा है, छोटे यदि उनका ध्यान न रखें, उन्हें आदर सम्मान न दें। बड़ों की छाया सिर पर रहे तो मार्ग सही रहता है। माँ ने लेटे लेटे भी बीमार रहकर भी अपने पास काम करने वाली को अक्षरज्ञान करा कर पढ़ा­ लिखा दिया था। पोती को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजने में सहयोग दिया था।


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