पुनीत श्रीवास्तव

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पुनीत श्रीवास्तव

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टिकोरे !

टिकोरे !

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अप्रैल मई वाले इसी मौसम में, जब कटिया शुरू होती है, गर्म दुपहरी में सालाना परीक्षा खत्म होती है भूरी वाली दफ़्ती उसमे दबा जिओमेट्री बॉक्स,

ऐसी ही एक गर्म दोपहर जब हम और हमारे साथ रमन झम्मन और मकालू सरस्वती शिशु मन्दिर से पैदल तिरछी रेखा, मतलब स्कूल से खेत खेत जो सीधे शिव मंदिर तक पगडंडियों से होते हुए ,आती थी से चले आ रहे थे रास्ते मे पड़ती थी एक बगिया किसी की थी आज भी है पेड़ जो छोटे थे तब अब बड़का पेड़ हो चले हैं ,बगिया एक चौकोर, उसमे बीच मे रास्ता, हर तरफ आम के पेड़ और सबसे लालच का कारण टिकोरे .......

हम सबसे बड़े उस टोली के, सरगना,आंखों में इशारा हुआ, कोई खुरापात नहीं, मौन सहमति मन मार के 

कोई बोला  केहू लउकत त नाही बा !!

तब ???

तुड़ल जाए ?

आदेश से पहले ही इच्छा भारी पड़ी, हाफ पैंट की जेब, किसी का बस्ता सब फूल !!!

फिर धीरे धीरे प्रस्थान विजय पताका लिए हुए जैसे ज्योहि बगिया खत्म हुई देखा कई सारे रखवाली वाले छोर पर बैठे हैं !! लंच टाइम हुआ था पक्का पर वो अपने खाने में मगन, चाल धीमी हुई मन मे सबके हुआ, देखे तो नही हैं कहीं तोड़ते, अपनी अपनी पॉकेट सेट करते चलते रहे लगा अब बोलेंगे सब, पकड़ेंगे कहीं मारे पिटे न पर चलते रहे, कोई आवाज़ नही, यक़ीनन नही देख पाए सब, सांस में सांस आई फिर दौड़ते घर आये चोरी का माल इकट्ठा हुआ, बनी भुजरी, नमक तेल बारीक कटी प्याज और लाल मिर्चे के अचार को मिला के !!!!

जो स्वाद था अभी भी याद है 

चोरी फिर बाल बाल बच के घर तक वापसी के बाद जो खाने को मिले थे  टिकोरे...


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