Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Children Stories

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Children Stories

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं

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दर्पण में स्वयं को निहारा अपने निर्दोष सौंदर्य पर मैं, स्वयं मुग्ध हुई थी। लॉकडाउन होने से स्कूल बंद थे। आठवीं कक्षा का नया शिक्षा सत्र आरंभ नहीं होने से मैं, वह खाली समय अनुभव कर रही थी जिसमें कि पढ़ने के अलावा, स्वयं में मैं, अन्य किसी क्षमता की पहचान करूँ। 

आत्ममुग्धता में मैंने, चित्रकारी सीखने एवं अपनी स्वयं की, तस्वीर बनाने कि सोची। फिर अपना यह विचार बताते हुए, पापा से चित्रकारी के लिए आवश्यक सामग्री की माँग की थी। मेरे पापा का मानना है कि बच्चों को खाली दिमाग नहीं रहना चाहिए। ऐसे में मेरी कलात्मक रूचि को मान देते हुए, उन्होंने अगले तीन चार दिनों में, लॉकडाउन की कठिनाई में भी, चित्रकारी की सभी सामग्री, सीखने की किताब सहित, उपलब्ध करा दी थीं। 

उस दिन के बाद, जहाँ देश में लॉकडाउन के विभिन्न चरण जाते आते रहे, उसी समय में यहाँ, मेरी चित्रकारी नए नए चरण में प्रवेश करती गई। 

आरंभ में मैंने, कागज पर रेखाचित्र खींचने की कला सीखी। अपनी लगन एवं निरंतर अभ्यास से तब बाद में, अपने हाथों की, ब्रश से रंग भरने की कला में, मैंने निखार लाया। फिर जब मुझे, अपनी चित्रकारी कला पर आत्मविश्वास आ गया, तब मम्मी से मैंने, अपने निर्दोष सौंदर्य की, आकर्षक भाव भँगिमा में, स्पोर्ट्स एन्ड एक्शन कैमरे से, एक तस्वीर क्लिक करवाई। 

उसके बाद एक तरह से तपस्यारत होकर मैं, मॉनिटर पर, उस तस्वीर को खुली रखते हुए, उसे देख देख कर, कैनवास पर वैसा ही चित्र खींच देने में जुट गई।

यह सुखद संयोग रहा कि देश में, जिस दिन अनलॉक I, आया उसी दिन, अपनी चित्रकारी से मैंने, मेरी, कैमरे से क्लिक की गई तस्वीर की हूबहू तस्वीर, 48" X 48" कैनवास पर उतार दी। 

अपने कमरे में, मैंने सबसे छिपा छिपा कर बनाई, तस्वीर का अनावरण अपनी दादी के हाथों करवाया था। अपनी (मैं) पोती के द्वारा, बिना किसी चित्रकारी की क्लास लिए, दक्षता से बनाई तस्वीर को देख, मेरी दादी फूली नहीं समाई थी। 

दादी, मेरे पापा एवं मम्मी के सामने प्रशंसा में कह रहीं थीं - वाह, भगवान ने मेरी पोती को, सुंदरता देने के साथ ही यह अनुपम कला भी प्रदान की है। पापा भी मेरी लगन एवं गुण से अभिभूत थे उन्होंने कहा - हाँ, माँ यह तस्वीर देखकर तो कोई भी कहेगा कि यह किसी अत्यंत दक्ष चित्रकार की कला कृति है। कौन, विश्वास करेगा कि हमारी, मात्र 12 वर्षीया बेटी की बनाई, यह प्रथम तस्वीर है। 

माँ ने मुझे ममता से अपने आलिंगन में लेते हुए कहा - 

"कई बार देश की बेटियों पर ज़माने की बुरी दृष्टि की कल्पना से, और तुम्हारी सुंदरता से, मुझे घबराहट हो जाती है, मगर, तुम्हारी इस सुंदर तस्वीर को उस बुरी दृष्टि से कोई भय नहीं है। तुम, अपनी कलाकृतियां ऐसे ही बनाया करना, मेरी बेटी। "

इन तस्वीरों के माध्यम से देश के सामने, अपनी उपस्थिति दर्ज करना। वरना तो इस समाज में, नित बेटियों पर हो रहे दुष्कृत्यों से, मुझे कभी कभी लगने लगता है कि ऐसे मनोरुग्ण समाज में, दोनों ही संतान मुझे, बेटियाँ प्रदान कर ईश्वर ने, मुझ पर अन्याय किया है। 

मेरी माँ के द्वारा ममता एवं भय से कही इस बात ने, चल रहे आनंद पूर्वक वार्तालाप में गंभीरता घोल दी थी। 

तब पापा ने कहा - "नियति (मेरी माँ का नाम), तुम नहीं जानती, बेटियों और युवतियों की तस्वीर भी अब ज़माने में किसी भय से निरापद नहीं। आज पुरुषों की मानसिक विकृति, सिर्फ साक्षात बेटियों के ऊपर ही नहीं, ये दुष्कृत्य बरपा रही है, अपितु उनमें विद्यमान रुग्णता, तस्वीरों को भी नहीं बक्श रही है।" 

मैं समाचारों में इन बातों को सुन-पढ़ रही थी कि देश में, नित दिन अनेक लड़कियाँ और युवतियाँ, काम रोगी एवं नशे में धुत्त पुरुषों की काम पिपासा की शिकार हो रहीं हैं और मार तक डाली जा रहीं हैं। मगर तस्वीर के साथ क्या छेड़छाड़ हो सकती है, पापा का कहना मुझे समझ नहीं आया था। 

उस रात डिनर के बाद, मेरी छोटी बहन जब सो चुकी, पापा अलग कमरे में अपने लैपटॉप पर किसी लेखन में व्यस्त थे तब, दादी एवं माँ के सामने, मैंने अपनी जिज्ञासा रख दी।मैंने पूछा - माँ, मैं समाचार में ये दुष्कृत्य, काम रोगी, कामुक, काम पिपासा, अनियंत्रित यौनेक्छा आदि शब्द पढ़ती-सुनती हूँ। इनके अर्थ, क्या होते हैं?

मेरे प्रश्न पर माँ ने दादी की ओर देखा था। दादी ने, समझ लिया कि उनकी बहू नियति, चाहती है कि वे, पोती के प्रश्न का उत्तर दें। 

दादी ने कहा - बेटी, तुम्हारे पापा साहित्यकार हैं, वे सही तरह से तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देंगे। मैं उनसे कहूँगी वे, तुम्हें इनके अर्थ, भलिभाँति समझायें। 

मैंने हामी में सिर हिलाते हुए, फिर कहा - मगर दादी, किसी लड़की की तस्वीर पर, कोई अपनी ख़राब दृष्टि से, लड़की का क्या बिगाड़ सकता है, यह तो बताइये। 

माँ एवं दादी के मुख पर आये भावों से, मैं समझ पा रही थी कि मेरे प्रश्न, उन्हें हैरान-परेशान कर रहे हैं। दादी ने मेरे प्रश्न का घुमा कर उत्तर दिया। कहा - 

मेरी बेटी! (जैसे कुछ स्मरण कर रहीं हों, कुछ पल की चुप्पी, फिर) बेटियाँ एवं औरतें, तस्वीर में ही सुरक्षित होती थीं। हमारे समय में, तस्वीर देख उनके विवाह तय होते थे। 

तस्वीर से निकल जब वे साक्षात यथार्थ ससुराल में कदम रखती थीं तो किशोर वय से ही उन्हें, बच्चा जन्मने की मशीन बन जाना होता था। आधा दर्जन से एक दर्जन तक संतान पैदा करने के उस समय के सामान्य क्रम में, कई स्त्रियाँ प्रसव के समय दम तोड़ देतीं थीं। 

तब मुझे लगता था कि स्त्रियाँ तस्वीर में ही सुरक्षित थीं। आज तुम्हारे पापा ने जो कहा है कि स्त्रियाँ तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं तब मुझे, स्वयं हैरत है कि अब समय बदलने के साथ, बेटियों की तस्वीर पर भी, ऐसा क्या खतरा आ गया। मैं स्वयं भी तुम्हारे पापा से, उनकी कही गई बात जानना चाहती हूँ। 

हमारी बातें चल ही रहीं थीं तब पापा कक्ष में आये थे। मम्मी ने, मेरे प्रश्न एवं दादी की बात उन्हें कह सुनाई थी। 

पापा ने मुझे प्रशंसा से देखा था। फिर कहा था - बेटी, तुम्हारे मन में चल रहे तर्क एवं प्रश्नों को स्थान देते हुए, मैं तुम्हारे आगामी जीवन पर एक कहानी लिखूँगा जिससे तुम्हें, उत्तर मिलेंगे। कहानी लिख कर उत्तर देने का मेरा विचार इसलिए है कि उसे प्रकाशित करने से, तुम्हारे तरह की और बेटियों को एवं उनके पालकों को, इससे मार्गदर्शन मिल सकेगा। 

मैं पापा की लेखन सामर्थ्य को अच्छी तरह जानती थी। मैंने सहमति में कहा - जी हाँ, पापा यह अच्छा रहेगा। इससे आपके लेखन को अच्छा विषय मिलेगा और आपकी लिखी मेरी कहानी में उल्लेखित कीं गई बातें, इस दृष्टि से भी उचित होगी कि वे मेरे साथ हमेशा रहेगी और मुझे मार्गदर्शन प्रदान करती रहेगी। 

पापा ने कहा - "बेटे, 3-4 दिनों में मैंअपनी लिखी तुम्हारी कहानी, तुम्हें, पढ़ने के लिए दूँगा। 

मैंने कहा - जी पापा। "

फिर हम सभी सोने चले गए थे। सोते हुए उस रात्रि मुझे उत्सुकता थी कि मेरे पापा, मेरी कहानी, क्या लिखेंगे?

 



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