तेरहवीं का अभिशाप
तेरहवीं का अभिशाप
एक वनवासी ग्राम जिसका नाम डब्बा था। वहाँ पर किसी के घर के सदस्यों के निधन पर कच्ची - पक्की तेरहँवी का रिवाज था। गाँव का एक निवासी जिसका नाम झरनू था । लम्बी बीमारी आर्थिक तंगी के कारण झरनू अपने पिता वसुआ का इलाज नहीं करवा पाया था। कुछ ही दिनों में झरनू का बाप स्वर्ग सिधार गया । किसी तरह रूखी - सूखी दो टाइम की रोटी का जुगाड़ मुश्किल से हो पाता था । ऊपर से तेरहँवी की चिन्ता खाये जा रही थी । झरनू ने गाँव के पंचों से गुहार लगाई कि उसके बाप की तेरहँवी करने की कहीं से कोई गुंजाइश नहीं है पर गाँव के पंचों ने उसकी एक न सुनी उल्टा समाज से बहिष्कार करने की धमकी दे डाली ।
मरता क्या न करता अब तो झरनू ने दिल पर पत्थर रखकर नगर जाकर जमींदार को अपना इकलौता बेटा और अपनी टपरिया बेचकर रुपयों का इंतजार किया नगर से तेरहँवी का सामान लाकर गाँव वालों को कच्ची और पक्की तेरहँवी करवाई । गाँव वालों ने उल्टा ये कहा कि देखो बन रहा था कि तेरहँवी न करवानी पड़े खूब रूपया जोड़े रखा था । यह ताने सुनकर झरनू खूब फूट - फूट कर रोने लगा और कहने लगा कि मुझ पर तौहमत मत लगाओ मैंने कैसे रुपयों का इंतजाम किया है यदि यह जान जाओगे तो तुम सबकी आँखे फटी की फटी रह जायेगी । जब गाँव वालों को हकीकत का पता चला तो सारे गाँव वाले शर्म से अपनी करनी पर पानी - पानी हो गये व चन्दा करके झरनू के साथ नगर गये जमींदार से झरनू का इकलौता बेटा और टपरिया के कागज छुड़ाकर लाये । सभी गाँव वालों ने अब तेरहँवी को ऐच्छिक कर दिया था जिसकी गुंजाइश हो वह करे और जिसकी गुंजाइश न हो वह बिल्कुल ही इस बारे न सोचे ।
