सोच की जीत
सोच की जीत
माही बेटा बहुत खेल ली अब आ जाओ पढ़ाई भी तो करनी है, चौदह वर्षीय बेटी को आवाज देती हुई आस्था बैठक में आकर टेलिविज़न ऑन करती है। टोकियो ओलम्पिक के महत्वपूर्ण अंश दिखाए जा रहे थे। सभी देशों के प्रतिभागियों के वर्षों की मेहनत साफ़-साफ़ हर पल देखी जा सकती थी। आस्था सभी के जज़्बे की तारीफ़ भी कर रही थी। तभी माही भी आकर
माँ के साथ बैठ कर टेलिविज़न देखने लगी। माही जिस तरह से एक-एक खेल को देख कर उसका विश्लेषण कर रही थी और हर जीत के साथ-साथ नही जीत पाने वाले खिलाड़ियों की विशेषता की चर्चा कर रही थी, आस्था अब खेल छोड़ कर माही को देख रही थी।
माही को टेबल-टेनिस खेलना पसंद है। जब वह तीसरी-चौथी कक्षा में थी तो काग़ज़ के गेंद बना, अपनी कापी को बैट बना, अपने पढ़ाई के टेबल पर ही टेनिस खेलती थी तब उसके पिता ने उसके दसवें जन्मदिन पर टेबल-टेनिस की किट भेंट करी थी और कोचिंग भी लगवाई थी। लेकिन पिछले साल आपदा की वजह से और इस वर्ष माही नवी में आ गई है इसलिए उसका टेबल-टेनिस बंद हो गया है।
आस्था याद करने लगी जब दो साल पहले माही ने इंटर-स्कूल टूर्नामेंट जीता था और वह कितनी खुश थी। जब वह नवी में आई और आस्था ने उसका खेलना बंद करवा कर पढ़ाई पर ज़ोर दिलवाया तो वह कहीं ना कहीं थोड़ी उदास ज़रूर हो गई थी। आज इन खेलो को और माही को देख कर आस्था को अपने फ़ैसले पर अफ़सोस हो रहा है।
अब भी समय है सुधार का, सोच आस्था माही से कहती है, “माही तेरी अकेडमी में इसी समय तो ज़िला स्तर के खेल के लिए फार्म भरे जाते हैं ना, तूने बोला क्यों नही फार्म भरने के लिए। मैंने मना किया था तो क्या तू ज़िद तो कर सकती है ना।तू ज़िद करेगी तो मैं मान जाऊँगी। समझी!” और आस्था धीरे से मुस्कुरा देती है। माही माँ की बातों को सुन आश्चर्य में है लेकिन जैसे ही बातें समझ पाई, सोफ़े पर खड़ी हो उछल-उछल कर माँ से कहने लगी, “ माँ फ़ॉर्म भरने दो ना। माँ तुम जब तक हाँ नही कहोगी मैं ऐसे ही सोफ़े पर उछलती रहूँगी”। आस्था ने हाँ कहा और दोनो माँ-बेटी नम आँखों के साथ एक दूसरे के गले लग गई।
कहीं ना कहीं सोंच में छोटा सा बदलाव और दृष्टिकोण का विस्तृत दायरा बहुत सी ख़ुशियों को आमंत्रण देता है। क्या पता आस्था के जैसे फ़ैसले से कितने ही माही मिले, जिनमें हो सकता है एक विश्व-विजेता भी छुपा हो।
