सीख
सीख
मेरी बड़ी बहिन हर बात में दूसरे का बहुत ख्याल और ध्यान रखती हैं और किसी काम करते हुए को कभी नहीं टोकतीं, न उसमें किसी तरह की बाधा डालती है या ध्यान बँटाती है। यदि हम भी कभी कुछ बेमतलब ही किसी को टोकने लगें तो हमें भी रोकती हैं और अपने बचपन का एक किस्सा सुनाती हैं जो उन्हें अभी तक याद है और उससे मिली सीख वे कभी नहीं भूलतीं।
मेरी बड़ी बहिन पिताजी की बहुत लाड़ली थीं। हर समय उनके साथ रहती थीं, उन्हीं के साथ कहीं आती जाती थीं। पिताजी भी उन्हें बहुत मानते थे और उनसे कभी कुछ नहीं बोलते थे।
एक बार पिताजी अपनी टेबल पर कुछ काम कर रहे थे। किसी को चिट्ठी लिख रहे थे या कुछ हिसाब किताब कर रहे थे। तभी बहिन वहाँ ऐसे ही घूमती हुई आईं और उन्हें यह जानने की उत्सुकता हुई कि पिताजी क्या लिख रहे हैं। वे पिताजी की कुर्सी के पास आकर खड़ी हुईं और झुककर यह देखने की कोशिश करने लगीं कि पिताजी क्या लिख रहे हैं।
उन्हें ऐसा करते देखकर पिताजी ने लिखना बंद कर दिया और धीरे से उन्हें समझाकर कहा कि “मुझे लिख लेने दो, इसके बाद देख लेना ,तुम को दिखा दूँगा, तब पढ़ लेना। पर कोई लिख रहा हो तो इस तरह से झांककर देखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इससे दूसरे का ध्यान भंग होता है। और यह एक शिष्टाचार भी नहीं है”।
जिस पिता ने कभी कुछ नहीं कहा था उनसे इतना सुनकर बहिन बेहद एकदम पीछे हट गईं। पिता का इतना कहना ही उनके लिए काफ़ी था। पिता की वह प्यार से दी हुई सीख उन्हें आज तक याद है।
बहिन बताती है कि फिर कभी उन्होंने किसी को लिखते हुए या कुछ काम करते हुए देखकर कोई बाधा देने की कोशिश नहीं की, शांति बनाए रखी। हमेशा पिता की दी हुई सीख को याद रखा। पिताजी कभी ग़ुस्से नहीं होते थे ,कठोर नहीं बोलते थे । उनका प्यार से समझाना या देखना ही काफ़ी था।
बच्चों को डांटने या उनकी आलोचना करने की ज़रूरत नहीं है ,बड़ों का उन्हें प्यार से समझाना ही काफ़ी है। बचपन में सीखी हुई बातें बड़े होने तक काम आती हैं और व्यक्तित्व का परिष्कार करती हैं। बच्चों को डाँटने से कोई लाभ नहीं। बच्चों को कोमलता से आदर और स्नेह देते हुए ही समझाना अच्छा है। बड़ों को देखकर ही उनका अनुकरण कर बच्चे अच्छा व्यवहार करना सीखते हैं।
