Mukul Kumar Singh

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Mukul Kumar Singh

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शुशुनिया भ्रमण

शुशुनिया भ्रमण

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जब किसी भी कार्य को करने में मन नहीं लगता है तो कहीं से घूम आना चाहिए भले घूमनेवाला स्थल बहुत दूर हो या निकट पर हमें उससे मानसिक उर्जा की प्राप्ति होती है,अपने कार्य को मन से कहें या लगन से करने में अच्छा लगता है। अतः ऐसा हीं कुछ शुशुनिया भ्रमण के लिए निकल पड़ा। य़ह स्थल मेरी जन्मभूमि पश्चिम बंगाल राज्य के बांकुड़ा जिले में स्थित है। इस भ्रमण-यात्रा की रुपकार मेरी एकमात्र संतान बिटिया पायेल। वर्षों पूर्व मैं कल्याणेश्वरी घूम आया था और उस यात्रावृतांत को एक ख्यातिप्राप्त पत्रिका ने प्रकाशित किया था उसे पढ़कर उसके मन में लालसा जगी कि वह भी कल्याणेश्वरी घूमने जाएगी और अपने शैलारोहण क्लब हिमचक्र के स्दस्यों के साथ बैठकर योजना बनाई एवं दल का गठन की जो इस प्रकार सूचीबद्ध था-मैं, उसकी माताश्री, पायेल, सुभाष कुमार साव, राजिव चक्रवर्ती, कमल सरकार और उसका अनुज रॉबिन सरकार, शिवेन्द्र चन्द्र धर तथा उसका मामा एवं लक्ष्मीकांत बसु। योजनानुसार भ्रमण की तिथी 8 मार्च दिन शनिवार। उक्त तिथि की सुबह 7 बजे की अप ट्रेन ब्लैकडायमण्ड एक्सप्रेस से बराकर स्टेशन, वहां से कल्याणेश्वरी मंदिर, मंदिर से मैथन बाँध और वहां से आद्रा में रात्रि विश्राम। अगली भोर अर्थात दिन रविवार को छातना एवं वहाँ से शुशुनिया पहाड़ ट्रेकिंग व शैलारोहण अभ्यास के बाद दल की वापसी। यह योजना एक माह पूर्व हीं तैयार हो चुकी थी। अब मेरे लिए मन में अशांति का उथल-पुथल होने लगी कारण मेरी उम्र अब युवाओं के साथ घूमने की न रही। युवा वर्ग में कुछ कर डालने की जो अदम्य भावना भावना होती है वह मेरे अन्दर न थी क्योंकि कोई भी कार्य करते समय उसको सफल करने के लिए अधिक सोच-विचार करने लगता हूं।

इसकी शुरुआत होती है घर से हीं। घर कहने का अर्थ तो समझ गये होगे श्रीमती जी जहाँ सदैव पृथ्वी के दोनो ध्रुवों को साक्षात् होता है। आपसी विचारों का मेल असंभव है क्योंकि घर की मुर्गी दाल बराबर होती है। पति महोदय भले हीं देश का राष्ट्रपति हीं क्यों न रहे पत्नी के समक्ष महामूर्ख होता है और यदि पत्नी की बातों को न माना गया तो तुरन्त हीं सुनाई देगा कि पुरुषों का वर्ग नारियों के विचारों का सम्मान नहीं करता है, नारियां तो दासी का जीवन जीने के लिए हीं जन्म लेती है, नारियों को अधिकारों का उल्लंघन सदैव हुआ है आदि-आदि न जाने कितनी उपमाएं सुनने को मिलने लगती है। सो इस तर्किक विषय को छोड़ देना हीं उचित समझता हूं ताकि मूल वाचन पर आ जाउं। निर्दिष्ट तिथि को अवधारित समय पर पहुंचने के लिए पूर्व रात्री को ठीक से सो भी नहीं पाया। एकदम प्रातः साढ़े पाँच बजे की नैहाटी बण्डेल लोकल ट्रेन जो पकड़नी थी और मैं हड़बड़-हड़बड़ कोई काम नहीं कर सकता ऐसा मेरा स्वभाव बन चुका था। सारी रात मैंने बड़ी व्यग्रता में कटाई कहीं मेरे कारण ट्रेन न छूट जाए। बिटिया और उसकी माँ गये रात तक सारी तैयारियां की। उषाकाल में लगभग चार बजे से हीं ट्रेन पकड़ने की तैयारियाँ प्रारम्भ और समय से पूर्व नैहाटी जंक्शन पहुंच गए। हमारी ट्रेकिंग दल दो भागों में बंटी हुई थी, एक में तीन सदस्य-शिवेन्द्र और उसका मामा तथा लक्ष्मीकांत जबकि दूसरे में बाकी और दोनों दलों की भेंट शुशुनिया में होना निश्चित था। मैं जिस दल में था वो नैहाटी से बण्डेल पहुंचे जहां ब्लैकडायमंड एक्सप्रेस मे सवार होकर बराकर स्टेशन जाएंगे। ट्रेन तो इन्डियन रेल्वे है जो सदैव स्वस्थ रहती है और मुस्कराते हुये विलंब से पहुंचती है और कहती है हे यात्रीनाथ मैं आपकी दासी मुझे अपनी सेवा से वंचित न करें। यात्रीनाथ कृपानिधान अपनी आराधिका पर खुश। हां कभी-कभार यह सुंदरी आराधिका कृपानिधानों पर क्रोधित होकर स्वस्थ हो जाती है एवं एकदम अपने पूर्व निर्धारित समय पर नयनवाणों की वर्षा करती हुई यात्रीनाथ को विलंब से आने के अभ्यास से विरत रहने का ज्ञान अवश्य दे जाती है। तो पाठकगण वो आई और हम उसकी सेवा के भागीदार बनें। यात्रीनाथों की एक विशेषता इस देश में पाई जाती है वह यदि वे सीट पर बैठे हैं और उनके बगलवाली सीट खाली है तो उसपर अपना कोई भी छोटा सामान रख देंगे तथा अन्य स्टेशन से सवार होनेवाले य़ात्रियों को कहेंगे सीट खाली नहीं है जिससे नया कृपानिधान किसी दूसरी सीट का आविष्कार कर नॉवेल पाने का प्रयास करेंगे तबतक ट्रेन सुंदरी अगली लक्ष्य की ओर प्रचलः। जो भी हो मुझे सीट मिल चुकी थी और ट्रेन अपनी सुर-ताल के साथ अग्रसर। यातायात के साधनों में रेल भी महान मानवीय सृष्टी है जो दैनिक न जाने कितने को उसके स्वजनों से मिलाकर खुशियों से समृद्ध करती है और न जाने कितनों को बिछुड़ने का यंत्रणा देती है। मैंने जितनी बार रेलयात्रा की है सदैव लगा जैसे सारा हिन्दुस्तान इसी में समाया है, जहां मैं इस हिन्दुस्तान का एक अति साधारण सदस्य हूं।

यहां एक अविस्मरणीय घटना का उल्लेख करना चाहूंगा – मेरी जो सीट थी वह दो के लिए उपयुक्त थी पर आपसी समझौते से तीन जन बैठ सकते हैं। इस सीट पर एक सहयात्री अपने सात-आठ वर्षीय बेटे के साथ बैठी थी और मूठाभाष पर अपनी दीदी से बातें कर रही थी कि आज उसके शौहर ने उसे ट्रेन में बिठाकर सरेआम गंदी-गंदी गालियां दी, हत्या करने की धमकी दी है एवं पुलिस भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ेगी। न तो टिकट दिये हैं और एक रुपया। बातें करते-करते सिसकने लगी। पता नहीं दूसरी तरफ से क्या कहा जा रहा था अचानक अग्नि की लपटों की भांति भड़क उठी कि अब भी तू मुझे सहने के लिए कह रही है, और कितना सहूं। तू मेरी सगी बहन है –तूने मेरे जीवन को दोजख में डाल दी है। वह प्रतिदिन मारता-पीटता है, गलत रास्ते पर जाने को कहता है। लेकिन मैं तुमलोगों तथा अम्मी-अब्बू के ईज्जत के लिए अपनी जुवां बन्द रख रही हूं। तूम सबको पता था कि मेरे निकाह से पहले किसी और के साथ उसका संबंध है तो फिर क्यों तुमने मेरा निकाह उससे कराई। वह प्रायः उस औरत के पास चला जाता है, क्या ये सब तुमको दिखाई नहीं देता है – अब तेरा शौहर खुश होगा कि चलो इसी बहाने मुझे तलाक मिलेगा और अपने भाई को हूर लाकर देगा। चूप रह तूहीं मेरी दुश्मन है उसे क्या समझाएगी अभी ये बता कि यदी टी.टी.ई. आ गया तो क्या करूंगी। और मूठाभाष का संपर्क विच्छेद। खूब रोती है। न चाहकर भी मैंने उसे देखा उसके वस्त्र एवं गहने ने अच्छी आर्थिक स्थिति के प्रमाण दिये सुंदर व उम्र मे मेरी बेटी से शायद तीन-चार साल से बड़ी होगी। उसके आँखे घबड़ाने का संकेत दे रही थी। पता नहीं क्यों मेरा मन उसके प्रति सहानुभूति हुआ और मैंने कहा-बेटी, तू मेरे लिए अपरिचित है एवं तुम्हारी मूठाभाष पर होनेवाली वार्तालाप के विषय में कुछ कहने का अधिकार नहीं है फिर भी कह रहा हूं कि तू अपनी परिवारिक विषयों को इतनी जगजाहिर स्वर में न कहो। धैर्य रखो मन को शांत करो डरने की कोई बात नहीं है,टी.टी.ई. जब आयेगा तब देखा जाएगा। मेरी बात सुन मूठाभाष संपर्क विच्छिन कर जी अंकल कह सिसकने लगी। मां को रोते देख उसका बेटा मां का हाथ पकड़कर कहने लगा मत रो अम्मी। मैंनं उसे सांत्वना दिया। वह चूप हो गई और मुझे अपनी आपबीती सुनाई तथा बोली अब आप हीं बोलो अंकल मैं क्या करूं। लग रहा कि आज हीं मैं बीच रास्ते में बेटे के साथ अपनी जीवन समाप्त कर लूं या कहीं और चली जाउं ताकि दूवारा उस दोजख में कोई जाने को न कहे। तब मैं उससे पूछा जहां जाने के लिए ट्रेन में सवार हूई हो वहां कोई अपना रिश्तेदार तो होगा उसे कहो कि तुम्हे सहायता करे और जीवनलीला समाप्त करने के बारें में मत सोचो। तत्पश्चात उसने किसी को मूठाभाष पर संपर्क किया। संपर्क विच्छेद करते समय वह बोली ठीक है मैं उतर जा रही हूं। उसने बताया कि उसका फूफेरा भैया यहीं बर्द्धमान में रहता है, आकर ले जायेगा। तब तक फिर उसका मूठाभाष घनघना उठी और क्रोधित हो अग्नि की लपटें भड़काने लगी। जिससे बोगी में नीरवता छा गई सारे यात्री निस्तब्ध। सबको समझते देर नहीं लगी कि विपरीत दिशा से उसकी बड़ी दीदी थी और उसका शौहर जिसने कोलकाता वापस लौटकर इसी के उपर दोष मढ़ दिया था कि पब्लिक के सामने उसको गालियां दी है,जूते फेंक कर मारा और टिकट भी नहीं ली। वह अपने को सही साबित करने के लिए सहयात्रियों से याचना करने लगी कि मेरे हसबैण्ड ने मूझ पर जूल्म किया न की मैंने अपने हसबैण्ड को गालियाँ दी, जूते चलाई या प्लेटफार्म पर धक्के दी। परन्तु आज की वर्तमान परिस्थितियां इतनी दिखावटी हो गई है की बड़ी-बड़ी ज्ञान की बातें तो सभी करेंगे पर सत्य का सामना करने से भाग जाते हैं यहाँ तक की उनमे नारियां भी रहती है पर आगे कोई नहीं आती है। वह गिड़गिड़ाती रह गई पर किसी को उस पर दया नहीं आई। यह सब देख मैं उत्तेजित होकर उसके हाथ से मूठाभाष ले लिया तथा न राम-सलाम एकदम सिधा आक्रमण कर कह हीं दिया तुमको शर्म नहीं आती है अपनी पत्नी के उपर दोषारोपण करते हुए लानत है तुम पर इस बिचारी को बीना टिकट बच्चे के साथ ट्रेन में बिठा दिया है। इस युवती ने मूठाभाष मुझसे ले ली तथा क्षणिक हूं-हां कर शांत हो गई तथा सिसकती रही। फिर सभी य़ात्री अपने आप मे व्यस्त। ज्यादा से ज्याद दस मिनट के बाद बर्धमान जंक्शन आ पहुंचा और वह मुझे धन्यवाद दी और उतर गई। ट्रेन छूटने – छूटने के नजदीक थी कि मेरे बांयी ओर की खिड़की से एक युवक का चेहरा दिखा जिसने मुझे थैंक्यु अंकल जी आपने मेरे आपा की मदद की और ट्रेन अपनी लय में दौड़ने लगी। इसके बाद अब तक जो सहयात्री फोन पर एक शब्द भी बोलने को तैयार न थे वही अब मानुष-अमानुष की व्याख्या कर रहे थे,उस अत्याचारी पति को राक्षस की उपाधी से विभूषित कर रहे थे। और मैं एक गहरी सांस लेकर दांयी ओर की खिड़की से बाहर के भागते हुए हरे-भरे फसलों से परिपूर्ण खेतों,गर्व से सर उँचा किये वृक्षों,दौड़ती हुई ट्रेन की पटरियों के पास एवं मैंदानों में सफेद रुई की भांति कुश के फूलों को अपनी झाड़ियों में झूमते हुए देख रहा था जिसके उपर चहकता नीलांबर तथा अम्बर के निचे स्वतंत्रतापूर्वक चरते हुए गवादि पशुओं को अपने नयनों में बसा लेने का प्रयास कर रहा था। फिर भी रह-रहकर सहयात्रियों की कृत्रिम मानवीय भावना को भूल नहीं पा रहा था। ट्रेन में यदि बैठने की सीट मिल जाय तो यात्रा बड़ी सुखद होती है। मुझे भी कुछ ऐसा हीं अनुभव हो रहा था, दौड़ती हुई ट्रेन सबको पिछे छोड़ती अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ती जा रही थी। उसके कर्तव्य में कहीं कोई कमी नहीं, गाँव हो या शहर-नगर सबके हृदय के तार को जोड़ती हुई मुझे भी नींद का उपहार दी पर मैं इतना कंजूस निकला कि बिना धन्यवाद दिए हीं सो गया। किसी की थपकियां पा आँख खोली तो देखा कि मेरी बिटिया पायेल थी जो कह रही थी “ओ बाबा बराकर स्टेशन के प्लेटफार्म पर हम प्रवेश कर रहे हैं।“ और कुछेक क्षण में हीं हम सबको मुस्करा कर विदाई दे वह ट्रेन आगे बढ़ गई।

अब हमें ऑटो स्टैण्ड की ओर जाना पड़ेगा सो ओवरब्रिज की सहायता ली लड़कों ने कल्याणेश्वरी मंदिर जाने के लिए ऑटोवाले से बात की उसने भाड़ा केवल एक तरफ का 350 रुपया कहा जबकि हम छः जन और सबको वह पशुओं की भाँति ठूंस कर ले जाएगा। यात्रा कष्टदायक होगी हम आपस में चर्चा करने लगे किसी दूसरे विकल्प वाहन की, और मिल भी गई एक मारुती कार। मैंने लड़कों से कहा कि जाने तथा वापसी दोनों की बात कर तय करो कितना भाड़ा लेगा। मारुती मालिक ने मुझसे पुछा – सर आप लोग पूजा देकर लौट आएंगे क्या? मेरे हामी भरने पर 700 रुपये की मांग की परंतु कुछ पल ना-नुकुर करने के बाद 500 पर बात पक्की हो गई। कारवाला ठीक है आपलोग हीं इतनी देर बाद पैसेंजर मिले हैं,भोर छः बजे से इन्तजार कर रहे हैं। इस समय साढ़े दस बज रहे थे और हम कल्याणेश्वरी मंदिर की ओर रास्ते से बातें करने लगें। कार का चालक राजिव या रॉबिन का समवयस्क होगा। रास्ते के दोनों तरफ की बस्ती को देखकर यह तो समझ आ गया मुस्लिमों का क्षेत्र है। कार चालक ने मेरे पुछने पर कि यहाँ वोट के समय झमेला हुआ था क्या? नहीं सर शासक दल की हार ने पुलिसों के संरक्षण में विरोधियों को पीटा भी और ऑरेस्ट भी करवा दिया जिससे लोग क्रोध में आकर सबको घेर कर ठोका। अब आप हीं बताओ सर हमहीं मार भी खायें तथा जेल भी जाएं यह कहां का कानून है वोट के पहले तक हमारे घर की बेटियों का रास्ते पर निकलना दूभर हो गया था। प्रतिवाद करने पर गुण्डों द्वारा तोड़ – फोड़ की जाती थी और पुलिस आक्रांत लोगों को हीं उठा लेती थी। जानते हैं कल जो बात – बात पर आँखे दिखाने लगते थे आज हमें इज्जत देते हैं। मैं केवल हूं-हां कर चुप – चाप सुन रहा था कारण भी था मैं अपने साथ सबको लेकर घूमने निकला था राजनीति का भागिदार बनने की ईच्छा नहीं थी। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे कारचालक युवक हमें मंदिर के बारे में तथा मंदिर के कारण वहां के लोगों का आर्थिक विकास हुआ है बताया साथ हीं मुस्लिम धर्मालंवियों का दूराग्रह यहां की उन्नति में किस प्रकार बाधक है बताने का प्रयास किया। इस विषय में मैं बोल हीं दिया कि हमारी राज्य सरकार तो ऐसे क्षेत्रों के विकास के लिए कार्य कर हीं रही है। इस पर उसने मुझे जो उत्तर दिया - सर जी आप ठीक कह रहे हैं, यहां कई मस्जिदें नई बनाई गयी हैं जिसका अस्तित्व हीं न था जो मदरसे टाली के चाल की थी उन्हे पक्की दो मंजिले बनाई जा चुकी है पर किसी नये स्कूल को मान्यता नहीं मिली है। हां मुख्य सड़क का पुनर्निर्माण कर मंदिर घूमने आनेवालो तथा श्रद्धालुओं को अवश्य आने-जाने मे सुविधा मिली है। चुंकि इससे प्रायः दस वर्ष पूर्व मैं आया था सो रास्ता पहचाना सा लगने लगा। वही रास्ते के दोनों किनारे निम्न श्रेणी के कोयले के ढेरों तथा पठारी ढलानों पर शाल,सेगुन तथा पलाश के पीले-पीले फूलों से लदे पेड़ एवं अन्य वुनो झाड़ियो के बीचो - बीच काली नागिन सा दिखनेवाली सड़क पर हमारी वाहिका सरपट भाग रही थी।

और अब हम कल्याणेश्वरी मंदिर आ पहुंचे। रास्ते के बांए किनारे कारचालक ने कार को कहा हे सखी चलो कुछ पल का आराम कर लो। मुझे छोड़कर बाकी सभी पूजा-पाठ के लिए डालियों की व्यवस्था में जुट गये। वैसे आज शनिवार है इसलिए श्रद्धालुओं की भीड़ होना स्वाभाविक है। मंदिर का प्रांगण दिखावे के भक्त हों या सच्चे भक्त सबसे अटी पड़ी थी। श्रृंख्लाबद्ध खड़े पूजा अभ्यार्थियों को देखकर लग रहा था जैसे मन में आध्यात्म का ढोंग पर सजावट में प्रतियोगिता की तैयारी करने को आएं हैं। जाने भी दो जिसको जो रूचता है उचित हीं करता है और मंदिर प्रांगण से बाहर निकल आया। पायेल बिटिया को मैंने कहा मैं यहीं बाहर थोड़ा घूमता हूं, तुमलोगों का पूजा समाप्त हो जाय तो तो मेरी घंटी बजा देना। आज से कई वर्ष पहले और वर्तमान में उस स्थान के बदले स्वरुप देखकर विचलीत हो गया, मेरा मन घृणा से उबकाई का अनुभव करने लगा। मंदिर के परिसर का पुणर्निर्माण किया गया है परंतु पूजन सामग्री की अवशेषों से मेंदिर के पीछे बहनेवाला नाला अपनी प्राकृतिक सौन्दर्य को खो चुका था वह जैसे कूड़ेदान बन चुका था मक्खियां भन्ना रही थी नाले से बहनेवाला जल कांच के समान कलकल करने के स्थान पर दूर्गंध फैला रहा था। पुरा परिसर कीचड़ के समान पच-पच कर रहा था। मैने आजतक जिस मंदिर की छवि सजा रखी थी वह रुप नहीं देखने को मिला। शायद यह श्रद्धा – भक्ति का उपस्थित मनुष्यों के विचारों का बदला स्वरुप मुझे दिख रहा था। अब मैं बाहर सड़क पर निकल आया जहां 5 मीटर की दूरी पर हीं तीनमोड़ है। मोड़ मेरे बांये और वहीं से एक रास्ता बाएं से माइथन बांध एवं मेरे पीठ की ओर बराकर स्टेशन तथा दाहिने तरफ शायद आसनसोल जाने वाले दिशा निर्देश मिलती है। मोड़ के मध्य विन्दु पर एक पुराना पेड़ जिसके एक तरफ ऑटो स्टैण्ड व ट्राफिक पोस्ट, मोड़ एवं मंदिर को केन्द्र करके चारो एक हल्का सा बाजार कहा हीं जा सकता है। मिठाई,पूजन सामग्री बेचने की दुकानें तथा नाश्ते- भोजन के लिए होटलों की भरमार है। तभी तो कहा गया है कि कोई भी पूजन स्थल व्यापारिक केन्द्र होता है और भारतवर्ष नें अपने वक्ष स्थल पर सारे नगरों का निर्माण ऐसे केन्द्रों पर किया है। मुझे तो अपने उदरवंधु से मिलने की ईच्छा हुई और होटल में घूस गया। टेबुल पर अभी बैठा हीं था कि मेरे सामने प्लेट में गरम – गरम कचौड़ी स्वागत करने को तैयार तो फिर मैं कोई मूरख तो हूं नहीं जो ऐसी अभ्य्रर्थना को ठुकरा दूं। उदरबंधु से मिलकर बड़ी शांति मिली। इसके बाद ऑटो स्टैण्ड पर गया ताकि पता चले की पर्यटकों की ग्रीवा को कैसे मरोड़ी जाती है, जो जानकारी मिली उससे लगा कि एक पर्यटक कहीं भी जाय उसको चूना लगना हीं है जैसे हमलोगों को ऑटो लाता तो छः सौ भुगतान करना पड़ता परंतु यहां प्रति व्यक्ति मात्र 20 रुपया अर्थात छः यात्री का 120 रु. वहीं यदि हम आने जाने के लिए बूक करेंगे तो 240 रु. और यदि हम वापसी में देर करेंगे तो लगभग 450 रु. भाड़ा निर्धारित बताया। अब इसके बाद वहां से थोड़ा आगे बढ़ा तो मंदिर के पिछले भाग में बहनेवाली नाला पर एक छोटा सा पुल देखा और अपना नाक भौं सिकोड़ लिया कारण पुल जिस स्थल पर था वहां भी गंदगी हीं दिखी जैसे नाला कह रही हो स्वार्थी मनुष्यों को मेरा केवल उपभोग हीं करना आया मुझे बचाए रखना नहीं। पुल के निकट हीं एक ऑटो खड़ा था उससे माइथन डैम का रास्ता पुछा तो मैं जिस दिशा की ओर बढ़ रहा हूं वही रास्ता जायेगी। तब तक मेरे मूठाभाष ने मुझे कल्पना जगत से वास्तविक जगत में ले आया और भागा मंदिर परिसर की ओर, देखा सभी मेरा इंतजार कर रहे थे। सभी प्रसन्न दिखे। मैंने हँसते-हँसते पुछा क्या आपलोगों ने पूजा एवं मंदिर के गर्भगृह का पर्यवेक्षण कर लिया प्रत्युत्तर में पायेल बोली आप भी क्या बोलते हो बाबा एक पंडे को कुछ रुपये देकर पूजा बाहर हीं बाहर संपन्न हुआ। यदि हम सतता दिखाते तो लगभग शाम हो जाती। हमलोगों को मायथन डैम घूमना और आद्रा जाना समस्या बनकर रह जाती कारण यहाँ जितने लोग चढ़ावे चढाने के लिए खड़े हैं सभी का बाड़िर लोक न जाने कहाँ से टपक जा रहा है तथा आपस में लड़-झगड़ रहे हैं। यहां पुलिस है फिर भी व्यर्थ क्योंकि जनता हीं उन्हे कर्तव्य पालन में बाधा पहूंचाती है। इसी तो मैं कहता हूं कि ईशवर की उपासना मन हीं मन करो, मंदिर में आना कृत्रिम भक्ति है। हमारा रथ जहां था वहाँ से वह हवा हो चुकी थी सो मूठाभाष पर लड़को में से किसी एक ने संपर्क किया और हमारा रथ हमारे सामने। बस पाँच मिनट में हीं अपने दूसरे गंतव्य की ओर लगी सरपट दौड़। ज्यादा से ज्यादा 20 मिनट लगे होंगे। सड़क को देखकर लगा जैसे पहाड़ी जंगल को चिरते हुए आगे भाग रही है लेकिन प्राकृतिक सौन्दर्य में कोई कमी न थी। यहां सबसे पहला काम हुआ दोपहर का भोजन रोटी, आलु-अण्डे की गाढ़ी झोल से मित्रता स्थापित कर ब्रह्माग्नि को भेंट चढ़ा कर नये उर्जा से सज्जीत करना। तत्पश्चात मुझे छोड़कर डैम का प्राकृतिक व कृत्रिम सुन्दरता का अवलोकन करने के लिए निकल पड़े। उनके जाने के बाद डैम के पास जलाशय तथा मोटरबोटों में विहार करते सैलानियों को निहारता रहा। मुझे यह समझ नहां आ रही थी कि मनुष्य जब आनन्द में डूबने लगता है तो क्या अपनी मातृभाषा भूल जाता है या विदेशी बनने का स्वांग करते हैं तथा पशुओं की भांति शोर मचाते हैं। केवल शोर हीं नहीं बल्कि शरीर के अंगों की प्रतिक्रिया भी कुछ ऐसा देखने को मिल रहा है जिसमे पागलपन का प्रदर्शन दिख रहा है। स्त्री-पुरुष कोई भी कम नहीं है। हो सकता है यही आधुनिकता की विचार हो या मेरे विचारों में हीं पूर्वाग्रह भरा है। 

जब सभी घूम-घाम कर आ गये तथा माईथन को धन्यवाद देते हुए वापस बराकर लौट चले। बीच रास्ते में हीं यंग ब्रिगेड ने मुझे बताया की सर आसनसोल जाने की ट्रेन ब्लैकडायमण्ड को छोड़कर दूसरी नहीं मिलेगी वह भी विलंब से हीं आयेगी। मैंने कहा विकल्प उपाय देखो। लड़कों ने ऑटो स्टैण्ड पर जाकर व्यवस्था कर हीं लिया एक बड़ा सा ऑटो जिसमें हम छः जन आराम से बैठकर यात्रा कर सकें। वापसी में यंग ब्रिगेड की खुशियाँ देखकर मुझे भी अच्छा लग रहा था और लगेगा भी क्यों नहीं बच्चों की खुशियां में हीं माता- पिता की खुशियां छिपी होती है। आसनसोल से लगभग आद्रा जाने की ट्रेन चार बजे छूटी और हम आद्रा सवा पाँच बजे पहुंच गये जहाँ आद्रा निवासी मेरे प्रिय मित्र लखन कर्मकार ने हम सबका स्वागत किया। आद्रा रेल्वे जंक्शन निकट हीं स्काउट एवं गाइड्स के अतिथिशाला में हमारे ठहरने की सुंदर वयव्स्था कर रखी थी। हम लोगों ने कुछ पल आराम करने के पश्चात स्नानादि से निवृत हो अपने को हल्कापन एवं ताजगी का अनुभव मिली। इसी बीच लखन की बिटिया रानु घर से शायंकालिन स्वल्पाहार लेकर आ गई। वह अपने बंधुओं से विशेषकर उसकी पायेल दीदी से मिल कर ईशारे –ईशारे में हीं दोनो बहनों में बात हो गई कि अगले दिन वह भी हमारे साथ शुशुनिया जा रही है। लखन के साथ आज की यात्रा के बारे में हम दोनो चर्चा करने लगे। बातों हीं बात में उसने कहा देखो जिस दृश्य को हमलोगों ने दस-पन्द्रह वर्ष पूर्व जिस विचार से देखा है वह वर्तमान पीढ़ी अपनी दृष्टि से देख रहे हैं। रही बात आपत्तिजनक प्रदर्शन एवं भावनाहीन आनंद का प्रदर्शन तो यह सदैव रहेगा कारण अन्य जीवों का एक निश्चित समय प्रकृति ने प्रदान किया है वैसा मनुष्यों के लिए नहीं है। यदि ऐसा होता तो विश्व में बलात्कार की घटनाएं हीं नहीं होती। इसके बाद लखन ने हम सभी को उसके निवास स्थल पर जाने का आग्रह किया और हमने सहर्ष उसे स्वीकार कर लिया।

अगला दिन शनिवार प्रातः सात बजे आद्रा जंक्शन से छातना के लिए लोकल ट्रेन पकड़नी थी। लखन अपनी पुत्री रानु के साथ समय पर पहुंच चुका था। हमलोग थोड़ा विलंब से उठे थे सो त्वरित तैयार होने लगे। यह देख लखन कहा हड़बड़ करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ट्रेन प्रायः पौन घंटा लेट चल रही है। चुंकि हमारा विश्रामागार स्टेशन से पीठ सटाए था जिससे ट्रेन के आने की घोषणा पर दौड़कर ट्रेन पकड़ने की सुविधा थी। लगभग सवा आठ बजे यात्रीगण खड़गपुर जानेवाली ट्रेन दो नं प्लेटफार्म पर आ रही है सुनने को मिला। विलंब से ट्रेन आने के कारण यात्रिय़ों की भीड़ ठसाठस पैर रखने की भी जगह नहीं थी पर हमारे यंग ब्रिगेड भी कोई कम नहीं थे सबको ठेलते-ठालते सवार और चालिस मिनट में हीं हम छातना की भूमि को स्पर्श कर चुके थे। वहाँ से चार चक्कों वाली छोटा हाथी पर सवार। छोटा हाथी काले–काले, टेढ़-मेढ़े सड़क पर दौड़ने लगा। मैं ड्राइवर के बगलवाली सीट पर आसन जमाए था, हरे-भरे कृषिज मैदान के सीने को चिरते सड़क के दोनों ओर के कुंजों के बीचोबीच सर उठाये ताड़,खजूर, बाँस, बबूल सिमुल-पलाश के विटपों, छोटी-बड़ी कई जलाशयों तथा मैदानों में गवादि पशुओं के झुण्डों को निहारता अपनी अलग वाटिका में दौड़ रहा था जैसे कोई प्यासा नदी या जलाशय के पास पहुंचना चाहता है। लखन पिछली सीट पर बैठा अपने ट्रेकिंगों के अनुभवों को यंग ब्रिगेड के साथ शेयर कर रहा था। लगभग आधा घंटा में हमलोग गंतव्य पर आ धमके। ड्राइवर को दक्षिणा 250 रु. देकर उस छोटे हाथी को राम-राम कह दिया। यहां आकर सबसे काम हमलोंगों ने प्रातः स्वल्पाहार से तरोताजे हो लिए और इसका भुगतान भी लखन ने हीं किया। यहां से यंग ब्रिगेड की कार्यवाही आरंभ। सुभाष, कमल,राजीव ने दल के दूसरे भाग से संपर्क साधा। दूसरी ओर से शिवेन्द्र था जिसने बताया कि वह भी अपने टीम को लेकर आधा घंटा में पहुंच रहा है तथा मुझसे कहा कि सर प उस टीम को धीरे-धीरे आगे बढ़ने का निर्दंश दे दें। हमलोग उनसे आ मिलेंगे। और टीम एक कदम – दो कदम करते बढ़ने लगी। राज्य सरकार ने इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल केन्द्र के रुप में सारी व्यवस्था कर रखी है बस् अपवाद है तो मात्र होटल कम रेस्टोरेंट कम बार की। फिर भी शुशुनिया पहाड़ से थोड़ी दूरी पर नवनिर्मित एक नया लॉज पर्यटकों के सेवा हेतु मुस्करा रही है। यंग ब्रिगेड नई उर्जा से सज्जित होकर आगे बढ़ गये। हम दो अर्थात लखनकर्मकार और मैं स्वयं वहीं शशुनिया के चरणस्थल के पास उनके वापसी तक ठहरना निश्चित किया। दोनो मित्र पर्वतारोहण के सहयोगी रह चुके हैं सो एक-दूसरे के अनुभवों के स्मरणों को याद कर कभी हँसे तो कभी दो बूंद टपकाए। बसंत का मनोरम समय अपने अंतिम काल में है और ग्रीष्म अपनी उपस्थिती देते हुए कह रहा है बस कुछ हीं क्षण में आपके प्रवेश द्वार पहुंच जाउंगा स्वागत के लिए तैयार रहो। जैसे-जैसे मार्तण्ड दोपहरिया को अग्रसर है उष्णता बढ़ती जा रही है। एक हीं स्थान पर समय बोझिल लग रहा था। हम दोनों टहलते हुए हमारे दांए-बांए ढेर सारी दुकाने थी उन्हे देखने लगे। अधिकतर पत्थर खोदकर बनी मूर्तियों, बर्तनों, घर में सजानेवाली वस्तूओ से सजाया हुआ था तथा सामने हीं मूर्तिकारों को छेनी-हथौड़ी से लड़ते हुए देखा। कौतूहलवश मेरा साहित्यकार मन जाग उठा एवं एक कारिगर या कलाकार से प्रश्नोत्तर करने लगा। कई प्रश्नों का उत्तर तो दिया पर न जाने क्यों वह घबड़ाया सा लगा और मुझसे कहा – दादा आप संवाददाता हैं क्या मैं आपके प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहता इसके लिए क्षमा करें। चुंकि लखन तो उसी क्षेत्र का रहनेवाला तथा वहां की परिस्थितियों को मुझसे कहीं अधिक जानता था इसलिए उसने उसे निर्भय रहने का आश्वासन दिया। मैंने बहुत सारे प्रश्न किये जैसे पत्थरों को काटकर मूर्तियां या अन्य सामान बनाने में उसकी परिश्रामिक, क्रय-विक्रय पर लाभ, प्रशासनिक सुविधाएं, दैनिक कितने समय देता है इस कार्य में आदि। बातों-बातों में एक अकाट्य सत्य भी प्रकट कर दिया प्रशासनिक सुविधा देख हीं रहे हैं दादाबाबु हमलोग यहाँ के सबसे पुराने मुर्ति शिल्पकार हैं फिर भी हमारा दुकान अस्थायी है क्योंकि हम किसी राजनैतिक झण्डे के निचे खड़े नहीं हैं। हमारी इतनी देर की वार्तालाप से वह प्रभावित हुआ और उस पावन केन्द्र जाने का आग्रह किया जहां एक अकल्पनीय कला तीर्थ हम दोनों की बाट जोह रहा था। हम दोनों बंधु उससे विदा लेकर पत्थर काटकर आशचर्यजनक शिल्पकारों मंदिरों की ओर प्रस्थान किये।

पैदल चलकर मुख्य सड़क के मोड़ पर पहुंचे तथा वहां से 50 मीटर तक दांयी ओर चलते गये, एक मोड़ मिली जो हमारे बांयी ओर थी जहां हमने एक बोर्ड देखी जिस पर लिखा हुआ था मानिक कर्मकार पाथर शिल्पी (राष्ट्रपति पदक प्राप्त)। बड़ी चौंकाने वाली बात थी मेरे लिए क्योंकि ऐसे पठारी वियावान क्षेत्र में जो शहरों की तरह हर सुविधा से वंचित हो और वहां राष्ट्रपति पदक लेकिन मैं कभी भी किसी भी स्थिती के लिए मानसिक रुप से प्रस्तुत रहता हूं सो मैं आश्चर्य के सागर में डूबा नहीं। एक मिनट भी नहीं लगा ग्राम्य वातावरण में एक अति साधारण दिखनेवाला दो मंजिला मकान परन्तु मकान की सीमा अधिक थी। रास्ते से हीं मकान को देखकर लग रहा था कि यहां मूर्तियां बनाने का काम होता है। प्रवेश द्वार लोहे की पतली-पतली छड़ों से बनी थी अवश्य पर रंग-रोगन अदृश्य वह भी ऐसे जैसे किसी ने मार-पीटकर उसे अर्द्ध मूर्च्छित कर छोड़ दिया हो और गेट के पास हीं एक बोर्ड फर्श पर पड़ा रूदन कर रहा था उस पर वही दो-चार शब्द लिखा हुआ था जो हमने यहां आते समय मोड़ पर देखा था। हमने गेट से अन्दर प्रवेश किया जहां हमारे स्वागत में काली,हनुमान,घोड़ा की बड़ी मूर्ति पत्थर काटकर बनाई गई थी एवं सादा,हल्का गुलाबी, भूरे रंग के छोटे-बड़े पत्थरों के ढेर इधर-उधर बिखरे थे। घोड़े की मूर्ति के निकट हीं विभिन्न माप के छेनियां-ङथौड़ियां पड़ी हुई देखी। मैं समझ गया कि इस घोड़े का सृजनकार इसे मूर्त रुप देने का प्रयास कर रहा था। हमारे दाहिने ओर लगभग 15 फीट चौड़ी एवं 40 फीट लंबाई में एक बरामदा थी और पत्थरों के बर्तन, पशु-पक्षियो, खिलौने,पूजा की वेदी एवं अन्यन्य वस्तुओं का अम्बार से परिपूर्ण। हम दोनों हीं आपस में निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि किसकी प्रशंसा करूं कलाकृतियों की या उसके निर्माता की। कलाकृतियां अपने को जीवंत बता रहे थे वहीं कला के इन प्रतिकों के अंग संरचना करने में कलाकर ने अपनी गढ़न क्षमता-धैर्य-निष्ठा-लगन में कहीं कोई त्रुटी नहीं छोड़ी थी। अभी हम उस कार्यशाला अर्थात वर्कशॉप में घूम हीं रहे थे कि एक 19 या 20 वर्षीय युवक हमारे सामने आया और पुछा – कुछ खरीदना है क्या मैं कुछ कहने हीं जा रहा था पर लखन हल्के से मेरा हाथ दबाया एवं कहा – मेरा नाम लखन कर्मकार है, आद्रा डी. आर. एम.ऑफिस में एकांउट सेक्शन में हूं तथा मानिकदा के साथ बात करनी है। चुंकि वक्ता – श्रोता दोनों हीं कर्मकार से ना-नुकुर नहीं हुई और वह युवक हम दोनो को कार्यशाला संलग्न मकान के अन्दर ले गया। हमारे अन्दर प्रवेश करने के पूर्व हीं एक व्यक्ति एकदम साधारण दिखाई देनेवाले से किसी वस्तु पर मुल्य भुगतान करने की बातें हो रही थी,वस्तु का मुल्य एक लाख बीस हजार एवं अग्रीम पचास हजार हमने सुनी। साधारण दिखनेवाला हमें 

बैठने का संकेत किया तब तक देखा एक शंख को फूंका गया और शायद महाभारत सीरियल में कृष्ण के द्वारा बजाई गई पांचजन्य की मधुर ध्वनि सुनाई दी। कुछ हीं क्षण में शंखवादक चला गया। हमें साथ लानेवाला युवक ने हमारे आने का उद्देश्य बताया – बाबा ये लोग आपसे कुछ बात करना चाहते हैं। उन्होने हाथ जोड़कर अभीवादन किया – कहिए क्या सेवा करें। लखन ने हीं वार्तालाप का श्रीगणेश किया और मेरा परिचय दिया कि ये मेरा बंधु, नैहाटी का रहनेवाला पेशे से शिक्षक और पहाड़ों-जंगलों में ट्रेकिंग करते है। प्रत्युत्तर में कहा गया इसका अर्थ आप भी पर्वतारोही हैं और हम तीनों हीं हंसने लगे। लखन मानिकदा से बातें करने लगा। मैंने अपनी मूठाभाष निकाली तथा मानिकदा से अनुमति लेकर वहां जो-जो देखा उसकी छवि मूठाभाष के कैमरे में कैद करता चला गया जिनमें एक छवि देखा अपने देश के भूतपूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के हाथों राष्ट्रपति पदक ग्रहन करते हुये मानिकदा का था। मेरे आश्च्रर्य की सीमा न रही क्योंकि मुझे विश्वास नहीं हो रहा था क्या एक अति साधारण सा दिखनेवाला व्यक्ति जो मेरे सामने लुंगी-गंजी पहने हुए है पत्थरों को काट-कूट कर अतुलनीय आकृति – आकार – रुप में गढ़ने वाला शिल्पकार है या भगवान। अब मैंने मानिकदा को टोका – दादा, आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली और सिखा किससे 

मास्टरमशाय, यह मेरी प्रेरणा नहीं बल्कि मेरे पिता-पितामह का पेशा था जिसे मैं अपने बचपन से देखता आ रहा हूं जब वे मूर्तियां बनाते पत्थरों को काटते तो मैं आस-पास रहता उनके कामों में हाथ बटाता और फिर पता नहीं कब स्वयं पत्थर काटने लगा।

"अच्छा मानिकदा, आप लोगों का भी ऐसा कोई दुकान है जहाँ ये सारी वस्तुए बेची जाती हो

मानिकदाः "जी नहीं।" 

"तो फिर आपके बारे में या इन कलाकृतियों के बारे में लोगों को कैसे पता चला"

मानिकदाः" देखिये मैंने जब से होश सम्हाला तब से मेरे घर पर लोग ऑर्डर देने आएं है और लोगों तक लोगों के द्वारा हीं पहुँचा होगा।"इसका मतलब जनसंपर्क हीं आपलोगों का माध्यम सदैव रहा है।"

मानिकदाः "हाँ, ऐसा हीं कुछ। शेष तो ईश्वर की कृपा कह सकते हैं।"

"क्या आपने कभी विज्ञापन, प्रचार-प्रसार के बारे में सोचा था।"

मानिकदाः "ना-ना मास्टरमशाय,यह सब आप ऐसे लोगों का आशिर्वाद-शुभकामना कहें। मेरे परिवाले तो आज भी नहीं जान पाये की मेरा नाम राष्ट्रपति पदक के लिए कैसे चुना गया हम तो उस दिन काफी भयभीत एवं घबड़ाए थे जब वो चिट्ठी आई थी। अपने पड़ोसियों को दिखाया क्योंकि मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। यह खब्रर कुछ हीं पल में हमारे गाँव एवं पास-पड़ोस में फैल गई। सबने मेरी पीठ ठोकी और कहा कि मानिक तुमने हमारे अंचल का नाम उँचा किया है।"

इसके बाद मानिकदा ने हमें वह पत्थर से बनी शंख दिखाया जिसके लिए उन्हे राष्ट्रपति पदक मिला। वास्तव में शंख को देख किसी भी कोण से कोई भी नहीं कह सकता है कि वह पत्थर का बना हुआ है। उस पर की गई नक्काशी, उसे फूंकने का विवर मुख,दोनो हाथ से पकड़ने वाला अंश सब एकदम प्राकृतिक सामुद्रिक शंख की भाँती। और जब उसे मैंने स्वयं फूंका तो उससे निकलनेवाली ध्वनि ने मेरे सारे भ्रमों को दूर कर दिया। मेरा अंतर्मन उस महान शिल्पकार की कार्यक्षमता के प्रति अभीभूत हो गया। हम जहाँ बैठे थे निकट हीं एक पतली सी काठ से बनी एक सन्दूक मानिक दा ने खोला जिसमें फ्त्थर से बनी एक बंशी निकाली और कहा इसे देखिए इस पूरे बंशी में श्री कृष्ण की बाल लिलाओं का चित्र बना रहा हूं। हमारे हाथों में दिया, थोड़ा वजनदार बिल्कुल कैलेन्डर या महाभारत धारावाहिक में जैसा देखता आया हूं हाथी का सुंड़वाला द्वीओष्ठकों से हवा प्रवेश करने वाली मुखछिद्र एवं अन्य छिद्र। लखन ने उसे फूंक भरी तो इतना रोमांचित हुआ किया शब्दों में वर्णन नहीं कर पा रहा हूं। हमारे मानिक दा के घर प्रवेश करने के पूर्व जिस शंख की क्रय-विक्रय की बात हो रही थी उसे भी उन्होने हमें दिखाया। सच कह रहा हूं तीनों हीं एक-दूसरे से अतुलनीय। लखन ने उनके पुत्र के पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा तो उत्तर में उन्होने कहा कि लखनदा शिक्षा को महत्व को मैं समझता हूं पर यह कैसी शिक्षा है जहां नौकर तो तैयार हो रहे हैं पर नियोक्ता कहां मिलेगा सो मैंने अपने बेटे को कहा अपना बाप-दादे का कार्य करो ताकि पाँच बेकारों को कर्मसंस्थान मिलेगा।

अब हमने उनसे विदा ली। वे हमें दरवाजे तक छोड़ने आए तथा मुझसे कहा कि मास्टरमशाय, एक विनती करना चाहूंगा आप तो पेशे से शिक्षक हैं मेरी बात आप छात्र-छात्राओं को अवश्य बताना ताकि हमारी यह कला सदैव जीवित रहे। मैंने मानिक दा को ऐसा करने का आश्वासन दिया और जब उनके गेट को पार किया तो उन्होने हमें बांयी ओर घूम आने के लिए कहा जहां उसे भी अच्छे कलाकार से हमारी साक्षात्कार होगी और यहां हमने जो देखा है उससे भी सुन्दर नमूने देखने को मिलेगा तथा एक हीं परिवार में पिता-पुत्र दोनों हीं राष्ट्रपति पदक से सम्मानित महान पत्थर शिल्पकार से भेंट होगी। हमलोगों ने एक-दूसरे को विदाई-अभीवादन किया। दोनों मित्र मानिक दा के सरलता एवं सहजता पर अवाक थे क्योंकिएक कहावत है शेष भला तो सब भला। मानिक दा ईर्ष्या से भी मुक्त थे तभी तो अपने पड़ोसी शिल्पकार को एक महान कला का पुजारी बताया। मानिक दा की बात सत्य निकली। बस पाँच कदम की दूरी पर हीं दत्तो बाड़ी पहुंच गये। मानिक दा के वर्कशॉप से काफी बड़ा वर्कशॉप सामने था। हम दोनो अन्दर प्रवेशागमन हुआ। गेट पर एक बड़ा सा बोर्ड देखा, नयन दत्त एवं निलय दत्त(पिता-पुत्र) दो-दो राष्ट्रपति पदक प्राप्त। आगे बढ़े एक छोटा सा कमरा देखा 24-25 वर्ष के कई युवक मूर्तियाँ तराशने का कार्य कर रहे थे। एक बाहर निकल आया और पुछा आपलोग क्या खरीदना चाहते हैं। हमने उन्हे उत्तर दिया कुछ नहीं बस आप लोगों के हाथों से गढ़े इन जीवित कलाकृतियों को देखने आया हूं। अच्छा-अच्छा, आईय़े कहते हुए एक दूसरे कमरे में ले गया जहां भारत के महान विभूतियों के जैसे गांधीजी,सुभाष, सी.आर.दास,विवेकानन्द, भगतसिंह,तथा अन्य स्वतंत्रता-सेनानियों मूर्तियाँ बनी हुई देखी। सबके सब दाँतो तले उंगुलियाँ दबाने लायक थी। उसी कमरे में एक ऐसे क्रांतिकारी की निर्माणाधीन मूर्ति देखा जो उसी अंचल का निवासी था पर उसकी जानकारी हमारे छात्रों के पाठ्यपुस्तक में कभी नाम भी सुनने या पढ़ने को नहीं मिला था। उस देशभक्त की कागजी छवि देखकर स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की जानकारी भी मिली। तत्पश्चात एक व्यक्ति हमारे सामने उपस्थित हुआ और जिस युवक ने हमे यहां तक लाया था उसको संबोधित कर कहा – इन्हे उस वर्कशॉप में ले जाओ। वो युवक चाभियों का गुच्छा लेकर निर्देशस्थल की ओर आगे बढ़ा और हमने उसका अनुसरण किया। उस हॉलनुमा स्थल का ताला खोल दिया गया और बीच में हीं ढेर सारे जंगली एवं पालतू पशु-पक्षियो के प्रतिरूपों को देखा। यहां तक कि बरगद, पिपल के पेड़ भी। यहाँ एक गुलाब तथा कमल के फूलों को देखकर असली-नकली पहचान करना भी असंभव सा लग रहा था। अन्दर कार्यशाला में तो रत्नों की भंडार देखकर कुछ क्षण के लिए तो अपना अस्तित्व हीं भूल गए और इतना आश्चर्य के सागर में डूब गया कि स्वयं को हीं पत्थर की मूर्ति मान लिया था। सब घूमकर देखते-देखते सौर्यमंडल के स्वामि सर से कान को स्पर्श करने लगे। अतः वापसी का समय हो आया था। जब हम वापस लौटने को हुए तो वह कला का पूजारी स्वयं ही हमारे निकट आए और बोले कि आशा है आप लोगों की ज्ञान पिपासा को थोड़ा सा हीं आनन्द दे पाया। दो-तीन दिन रह कर हमारे ग्राम को घूमें, इस उसर मिट्टी में सोंधी गंध नहीं मिलेगी पर शुशुनिया का प्राकृतिक रुप और हमारे ऐसे श्रमिक इन पत्थरों में प्राण डालते अवश्य शांति प्रदान करेगी। यह गांव रामकिंकर वैज ऐसे मुर्तिकार-चित्रकार की कर्मभूमि भी है।                       

  


               

   


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