रिश्तों की डोर
रिश्तों की डोर
वह एक वर्किंग वुमन थी...अपने मेरिट से उसने यह जॉब हासिल किया था। ऑफिस के काम को वह बड़ी संजीदगी से करती थी। बीइंग वर्किंग वुमन घर के सारे काम भी वह कॉन्फिडेंटली हैंडल करती थी। शुरुआत में घर में सब लोगों को अच्छा लगा। सभी को सहूलियत जो हो रही थी।अपने सारे डिसीजन्स वह इंडीपेंडेंटली लेती रही थी, घर में भी और ऑफिस में भी...जैसे मार्केट में खरीदारी या कोई इन्वेस्टमेंट करना हो।
धीरे धीरे घर में कुछ बदलता जा रहा था। जो बदल रहा था उसका अंदाज़ा उसे बहुत बाद में हुआ जब पति की बातचीत ड्राई सी महसूस होने लगी। पहले उसने सोचा कि ऑफिस के काम से बिजी हो रहे होंगे...लेकिन पति अपने आप में सिमटते जा रहे थे...ज्यादातर फोन में बिजी...कभी कलीग से बातें या फिर ऑफिस के काम में...जैसे ही वह कोई बात करने की कोशिश करती वह इग्नोर करते या फिर चिल्लाना शुरू करते। वह असमंजस में पड़ जाती क्योंकि उसे समझ नही आता कि क्या ग़लती हुयी... धीरे धीरे वह बच्चों में खोने लगी और पति अपने कलीग्स और ऑफिस में...
दोनों के बीच फ़ासले बढ़ने लगे। लगने लगा था कि घर मे पति पत्नी न होकर वे कोई रूम पार्टनर्स हो। आम तौर स्त्रियाँ ही घर के वातावरण को ठीक करने की पहल करती है तो उसने भी पहल की। लेकिन फिर वही नजरंदाज अँड ऑल....
और फिर एक दिन उसने अपना ट्रांसफर दूसरे शहर में करवा लिया क्योंकि एक घर में दो अजनबियों की तरह रहना उसे अजीब लगने लगा था.. ट्रांसफर के दूसरे वीकेंड में ही जब वह घर वापस आयी तो फिर वही कोल्ड रिस्पांस....
उसे महसूस हुआ कि वह भूल गयी की उसकी लड़ाई ईगो से हो रही है...एक पुरुष के ईगो से....जो शायद हिमालय से भी ऊँचा होता है....
अब उसे समझ आ गया की पुरुष हमेशा ही आज्ञाकारी स्त्री को पसंद करता है... किसी इंडीपेंडेंट और कॉंफिडेंट स्त्री को नही....एक इंडिपेंडेंट और कॉंफिडेंट स्त्री के साथ वह असहज होता रहता है...
