परछाई
परछाई


फिल्में समाज का आईना होती है या समाज फिल्मों को कॉपी करता है। सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद करता नायक या नायिका से समाज कितना प्रेरित हुआ या नहीं हुआ। यह सभी जानते हैं। दूसरी ओर प्रेम कथाओं पर आधारित फिल्मी पटकथाओं की कॉपी करते युवा वर्ग पर असर हुआ होता तो आज प्रेम को लेकर लड़ाई झगड़े नहीं होते। बात बस मनोरंजन की है। ना फिल्मी पटकथा सुधरी और ना ही सामाजिक कुरीतियां। बालमन पर चलचित्रों का गहरा असर पड़ता है तो फिर घर परिवारों में बैठकर छोटे-छोटे बच्चे भी गाहे-बगाहे उन फिल्मों या सीरियल्स को देख ही लेते हैं जिनको देखकर बड़े-बड़े भी पानी पानी होते जाते हैं। ऐसे में समझ
ा जा सकता है कि फिल्में समाज को किस दिशा में ले जा रही हैं। एक ओर हम बात करते हैं परिवार को एक सूत्र में बांधने की तो वहीं दूसरी ओर टीवी सीरियल्स या फिल्मों में परिवार को अलग-थलग करने की साजिश रचती खलनायिका या खलनायक आखिर क्या संदेश देता है। ठाकुर के जुल्म से निकले डकैत या राजनीतिक चक्रव्यूह में फंसे समाज को निकालते नायक की कवायद से आगे बढ़ते हुए अब हम किधर जा रहे हैं यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा फिलहाल तो यही मंथन की बात है कि फिल्में समाज का आईना होती है या समाज फिल्मों की परछाई। हां यह जरूर कहा जा सकता है कि लेखन किसी भी दौर में हुआ हो लेकिन उसका असर बहुत दूर तक जाता है।