पलकों की छाँव में
पलकों की छाँव में
केंद्रीय विद्यालय सिवनी में छठवीं का एक बच्चा था जगदीप। थोड़ा सीधा-सा। एक बार बच्चे दौड़ते हुए आए।
"मैडम, बच्चे जगदीप को मार रहे हैं।" मैंने पूछा, "क्यों?" बच्चों ने उसका झूठा नाम लगा दिया कि वह उनको तंग करता रहता है। मारा तो कम था पर बच्चों ने उसे बड़ा ही प्रताड़ित किया था।
वह बदहवास सा खड़ा रो रहा था। उसे देखकर मेरी आँखों से आँसू अविरल बहने लगे। मैंने उसे गले से लगा लिया तो वह फूट-फूट कर रोने लगा। बच्चे बताने लगे कि उसे कोई नहीं खिलाता, उसके साथ कोई खाना भी नहीं खाता।
मैंने कहा, "आपमें से कौन इस बच्चे के साथ खाना खाएगा और खेलेगा?"
एक बच्ची खड़ी हुई और बोली, "मेम, मैं इसे अपने साथ बिठाऊंगी, साथ में खाऊँगी, खेलूँगी और अपनी कॉपियाँ भी दूँगी।" उस बच्ची ने वादा निभाया और जगदीप उस बच्ची के कारण पढ़ाई में अव्वल आने लगा। उसमें असाधारण आत्मविश्वास पैदा हो गया।
उस बच्ची को इस कार्य के लिए पूरे विद्यालय के सामने मैंने सम्मानित करवाया। दो वर्ष बाद मेरा स्थानांतरण छिंदवाड़ा हो गया। मैं उसे भूल चुकी थी। एक दिन उसका फोन आया, "मेम आपने पहचाना क्या? मैं वही सीधा-सा बच्चा हूँ जिसके साथ कोई भी बैठना या खेलना पसन्द नहीं करता था।"
"अब क्या कर रहे हो?"
उसने कहा, "इंजीनियरिंग की पढ़ाई।" मुझे उसने फेसबुक पर ढूंढ लिया था। मुझे समझ आ गया था कि बच्चों को ऊपर उठाना है तो बच्चों की सहायता ज्यादा कारगर होगी।
उसके बाद मैंने कई बच्चों का इसी विधि से उद्धार किया।