पैबन्द

पैबन्द

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बोब्का के पास एक बहुत बढ़िया पतलून थी : हरी-हरी, सही में कहें तो मिलिट्री कलर की। बोब्का को वह बहुत पसन्द थी और वह हमेशा शेखी मारता था:

“देखो, लड़कों, कैसी बढ़िया है मेरी पतलून! फ़ौजियों जैसी!”

सारे लड़कों को जलन होती थी। और किसी के भी पास ऐसी हरी पतलून नहीं थी।


एक बार बोब्का फेन्सिंग फाँद रहा था, कील से उलझ गया और उसकी ये लाजवाब पतलून फट गई। दुख के मारे वह रोने-रोने को हो गया, फ़ौरन घर गया और मम्मा से विनती करने लगा कि पतलून सिल से।

मम्मा बहुत गुस्सा हो गई:

 “तू फेन्सिंग पर चढ़ता जा, पतलूनें फाड़ता जा, और मैं उन्हें सीती रहूँ?”

 “मैं आगे से नहीं करूँगा! सिल दो न, मम्मा!”

 “ख़ुद ही सी ले।”

 “मगर मुझे आता नहीं है ना।”

 “फ़ाड़ना सीखा है, तो सिलना भी सीख।”

 “अच्छा, मैं ऐसे ही घूमूँगा,” बोब्का भुनभुनाया और वह बाहर आँगन में चला गया।


बच्चों ने देखा कि उसकी पतलून में छेद है, और वे हँसने लगे।

 “कैसा फ़ौजी है तू,” वे कहते हैं, “तेरी तो पतलून ही फटी है?”

बोब्का सफ़ाई देने की कोशिश करता है:

 “मैंने मम्मा से सिल देने को कहा था, वो नहीं सीना चाहती।”

 “क्या फ़ौजियों की पतलूनें उनकी मम्मियाँ सीती हैं?” बच्चे कहते हैं। “फौजी को सब कुछ ख़ुद करते आना चाहिए : पैबन्द भी लगाना आना चाहिए और बटन भी लगाना आनी चाहिए।”


बोब्का शर्मिन्दा हो गया।

वह घर गया , मम्मा से सुई मांगी, धागा मांगा और हरे कपड़े का टुकड़ा भी मांगा। कपड़े से उसने छोटे से खीरे जितना पैबन्द का टुकड़ा काटा और उसे पतलून पर सीने लगा।

ये काम आसान नहीं था। ऊपर से बोब्का जल्दी में था और उसने कई बार उँगलियों में सुई भी चुभा ली।

 “तू ऐसे बार-बार चुभ क्यों रही है? आह, तू, घिनौनी कहीं की!” बोब्का सुई पर चिल्लाया और उसे बिल्कुल नोक से पकड़ने की कोशिश करने लगा, जिससे वो चुभे नहीं।


आख़िरकार पैबन्द लग ही गया। वो पतलून पर लटक रहा था, जैसे सुखाया हुआ कुकुरमुत्ता हो, और आसपास के कपड़े में इतनी झुर्रियाँ पड़ गईं कि पतलून का एक पैर भी छोटा हो गया।

 “आह, ये किस काम की है?” पतलून की ओर देखते हुए बोब्का भुनभुनाया। “ पहले से भी बुरी हो गई है! फिर से सीना पड़ेगा।”


उसने चाकू लिया और पैबन्द को काट कर निकाल दिया। फिर उसे ठीक-ठाक किया, दोबारा पतलून पर रखा, बड़ी सफ़ाई से पैबन्द के चारों ओर स्केच पेन से गोल घेरा बनाया और उसे फिर से सीने लगा। इस बार उसने जल्दी नहीं मचाई : धीरे-धीरे, एकदम सही-सही...पूरे समय वह देखता रहा कि पैबन्द निशान से सरक न जाए।

 वह बड़ी देर तक लगा रहा, नाक से सूँ-सूँ करता रहा, कराहता रहा; मगर जब काम पूरा कर लिया, तो पैबन्द की ओर देखना बड़ा प्यारा लग रहा था। वो एक-सा, सफ़ाई से और इतनी मज़बूती से सिला था कि उसे दाँतों से काट कर भी नहीं फाड़ सकते। 


आख़िरकार बोब्का ने पतलून पहनी और आँगन में आया। लड़कों ने उसे घेर लिया।

 “शाबाश!” वे बोले। “और पैबन्द पर, देखो, स्केच पेन से गोल निशान बना है। एकदम पता चल रहा है कि तूने खुद ही सिया है।”

और बोब्का घूम घूमकर दिखाने लगा जिससे सबको दिखाई पड़े और बोला:

 “ऐह, मुझे अभी बटन सीना भी सीखना है, मगर अफ़सोस कि अभी तक एक भी नहीं टूटी है! कोई बात नहीं। कभी न कभी तो टूटेगी – ख़ुद ही सिऊँगा।”



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