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Abhaya Kumar Gupta

Others

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Abhaya Kumar Gupta

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पापा

पापा

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मुझे अपना घर छोड़े कई बरस हो गये हैं। घर छोड़ने का मतलब परित्याग से बिल्कुल नहीं है। इसका बस इतना ही मतलब है कि जैसे पहले हर दिन और हर रात अपने घर में मम्मी-पापा, भाई-बहनों के साथ बीतती थी। वैसा दसवीं के बाद के बाद से कभी नहीं रहा। दसवीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिये लखनऊ गया, फिर इंजीनियरिंग काम्पिटिशन की तैयारी के लिये कानपुर, फिर आगे कानपुर में ही अभियांत्रिकी की शिक्षा, फिर नौकरी के लिये सुदूर कैगा(कर्नाटक) और फिर मुंबई में रहता रहा। वापस फिर से पहले की तरह घर नहीं लौटा। जब कभी मौका मिला तो प्रायः १० दिन या कभी-कभी २०-२५ दिन घर पर छुट्टियों की तरह रह पाया। जैसे बहुत पहले बचपन में गर्मी की छुट्टियों में कुछ बीस-बाईस दिन नानी के घर रहा करते थे या कभी-कभार सात-दस दिनों के लिये पापा हमें अपनी माँ यानी कि मेरी अईया (दादी को हम लोग इस नाम से संबोधित करते थे) के यहाँ ले जाया करते थे। दादा-अईया गाँव में रहते थे, पापा की उस गाँव से करीब 40 किमी दूर एक कस्बे में दुकान थी। इस तरह ही अब मेरा घर मेरे लिये दादी या नानी के घर सरीखा बनकर रह गया है।

प्रायः हम लोग अपनी माँ से अपनी हर बात कह लेते हैं। मम्मी से हर दिन फोन पर बात हो जाती है, पर पापा से कभी-कभार ही होती है। कभी-कभी पापा मम्मी के पास बैठे रहते है, फोन पर बात तो मम्मी से हो रही होती है। पर लगता है जैसे उन्हीं से बात हो रही होती है। यह सब मैं अपने पापा को ध्यान में रखकर लिख रहा हूँ। हो सकता है यह सबके लिये सच न हो। या फिर हो सकता है यह प्रवृत्ति बड़े होने पर आ जाती हो। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि पापा से मुझे किसी भी तरह का डर रहा हो। जब से होश संभाला है, मैंने आज तक अपने जीवन के लिये जो भी चुना है उन्होंने उसे करने दिया है। जहां तक मैंने अपने कई दोस्तों को देखा है कि उनके पापा लोग उन्हें सुझाव देते हैं कि उनको जीवन में यह करना चाहिए या वह करना चाहिए। जो उनके लिये बढ़िया रहेगा। पर मेरे केस में यह उल्टा ही रहा है, यहाँ मैं अपने पापा को बताता रहा कि मुझे अब ये करना है, अब ये करना है। ये मेरे लिये सही रहेगा। और हर बार पापा आश्वस्त रहते हैं क्यूंकि शायद अपनी छोटी सी महत्वाकांक्षा की दुनिया में मैंने जो कुछ कहा या सोचा था, ईश्वर की कृपा से उसे ठीक ठाक तरीके से पूरा करने में समर्थ रहा हूँ।

मुझे तो याद आता है बचपन में शायद ही कभी कोई मौका आया होगा जब उन्होंने मुझे थप्पड़ लगाया हो। अभी याद कर रहा हूँ तो कोई भी ऐसा मौका याद नहीं आ रहा। जबकि मम्मी के हाथों तो कभी-कभार पिटाई हुई है। पापा ज़्यादातर शांत ही रहते हैं। इसका ये मतलब नहीं कि चुप रहते हैं। वो तो बस उन लोगों से ज़्यादा बात नहीं करते जो अपने आप को ज़्यादा बढ़ा चढ़ा कर प्रकट करते हैं। उन्हें सीधे-सच्चे लोग ज़्यादा जमते हैं। वह अपनी दुकान पर आने वाले गाँव के लोगों से खूब बतियाते हैं। साफ ही है कि गाँव के लोग बड़े भलमानस और सीधे-सादे होते हैं, कुटिलता उनके दिमाग में बहुत कम ही रहती है। पापा की एक आदत यह है कि कोई भी बात वह कम अल्फ़ाज़ों में नहीं पूरी कर पाते। किसी बात से संबंधित सारी चीजें बताते है, जब कोई बात शुरू कर देंगे तो उसके शुरू से लेकर अंत सारी बातों को कह डालेंगे। उन्हें कपड़े का भी बहुत शौक नहीं है कि खूब सजधज कर रहना है। बस जितनी ज़रूरत हो उतना ही पहनावा रखते हैं। दुकान पर प्रायः हर रोज कुर्ता-पाजामा पहनते हैं और जब कहीं बाहर जाना होता है तब पैन्ट शर्ट। इसके अलावा शादी-ब्याह में कुछ दूसरा जैसे कोट-पैन्ट जैसा पहने देखा है मैंने उन्हें, वो भी उनकी बेटियाँ और बहू (मेरी पत्नी) बोली होंगी तब पहना होगा उन्होंने। ऐसा मालूम होता है कि उनका यह गुण थोड़ा बहुत मुझमें भी आया है।

लड़ाई या बहस करते भी मैंने उन्हें शायद ही कभी देखा है। हाँ, पति-पत्नी के बीच जो लड़ाई का स्तर चलता रहता है, वह ज़रूर होता रहता है। तभी तो कभी-कभार मम्मी उन्हें उलाहना भी दे देती है कि बस हमें जो चाहो कह लो, बाहर किसी को कुछ नहीं कह पाते। खैर, ये तो हर घर की कहानी है। ऐसी नोक-झोंक पापा-मम्मी के बीच अक्सर चलती रहती है। अब जबकि मैं ज़्यादातर बाहर ही रहता हूँ तो ऐसे रोचक घटनाओं का साक्षी नहीं रह पाता।

वे सर्दियों के दिन थे। मैं घर आया हुआ था। तब शायद मैं कैगा, कर्नाटक में रहा करता था। एक रोज दोपहर के वक़्त मैं अपनी दुकान पर गया हुआ था।छोटी जगह की सबसे खूबसूरत बात ये होती है कि कोई किसी के भी दरवाजे पर उतने ही हक के साथ उठ-बैठ सकता है जितना कि अपने घर के दरवाजे पर। इसी सच को सही साबित करते हुये पड़ोस का एक हलवाई प्रायः हर दिन दोपहर के वक़्त सर्दी की धूप में गट्टा (एक तरह की मिठाई) बनाने के लिये हमारी दुकान के सामने आ जाया करता था। गट्टा बनाने की प्रक्रिया में एक वक़्त ऐसा रहता है जब वह एक लम्बे और मोटे पेड़ की छाल के स्वरूप में होता है, जिसे हलवाई बार-बार खींचता रहता है, फिर छोटा कर के दूसरी तरफ से खींचता है। इसका रंग सफेद रहता है। शायद जितना ज़्यादा उसे खींचा और फिर संकुचित किया जाता है। गट्टा उतना ही सही बनता है। खींचने और संकुचन की प्रक्रिया के वक़्त इसे हम लोग पट्टी कहते हैं। यह पट्टी बच्चों को बड़ी स्वादिष्ट लगती है क्योंकि इसे खाते वक़्त यह दांतों में चिपकती है। इस चिपकाव को छुड़ाने में और फिर खाने में बहुत मजा आता है। कहीं न कहीं इस आधार पर इसे “सफेद देसी चॉकलेट” की संज्ञा दी जा सकती है।

हलवाई पट्टी को खींच और संकुचित कर रहा था। मैं अपनी दुकान के एक स्टूल पर बैठे उसे ध्यान से देख रहा था। मुझे उसे देखते हुये 2-3 मिनट ही हुआ था कि मैंने पापा को उस हलवाई को बुलाते हुये देखा। उन्होंने उससे कहा-‘अरे, पाँच रुपये की पट्टी बाऊ (मुझे) को दे देना।

पापा के चेहरे पर जो भाव देखें उसने एकदम ही मेरे मन में अजीब सी बाल सुलभता ला दी थी। उस वक़्त पापा ने जिस तरह से उस हलवाई से कहा था। मुझे ऐसा लगा था जैसे मैं सचमुच ही कोई चार बरस का छोटा बच्चा था जिसे उसके पिता कोई खिलौना खरीदकर दिला रहे थे। मन तो यही हुआ था कि काश ! मैं छोटा बालक ही बन सकता तो कितना अच्छा होता। पापा गोद में बिठाकर अपने हाथों से पट्टी खिला रहे होते। वो दोपहर और पापा के चेहरे के वे भाव जस के तस आज भी मेरे मन-मस्तिष्क में कैद हैं। सच, अपने माँ-बाप की नज़र में तो हम हमेशा बच्चे ही रहते हैं।



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