सच्ची पूजा
सच्ची पूजा
‘क’ जी हाँफते हुए से मंदिर पहुँचते हैं।उनके हाथ में भगवान के लिये ढेर सारा भोग, दूध हैं।मंदिर का पुजारी उन्हें देख के मुस्कुराता है और कहता है-"’क’ जी आज लेट हो गये?"
‘क’-"अरे हाँ, पंडित जी।क्या बताऊँ, मेरे भगवान भी भूखे होंगे अभी।देर हो गयी।भोग लगाता हूँ जल्दी-जल्दी।"
पुजारी-"कोई बात नहीं।आराम से कर लीजिए।"
मंदिर में अभी-अभी एक तीसरा व्यक्ति ‘ग’ आया होता है।वो ‘क’ जी को तन्मयता से देखता रहता है और आनंदित होता है।जब ‘क’ जी सब चढ़ावा वगैरह करके चले जाते हैं तब वह पुजारी से पूछता है- "लगता है, बड़े भक्त आदमी हैं।धन्य हैं ऐसे लोग और उससे भी ज्यादा धन्य हैं इनके माता-पिता जिनका ऐसा बेटा है।"
पुजारी (ग से)-"अरे अब क्या बताऊँ बेटा।ये जो ‘क’ जी हैं यहां हर रोज सुबह सबसे पहले चढ़ावा करने आ जाते है पर इन्होंने अपने बूढ़े माँ-बाप को अपने साथ नहीं रखा है।वो बेचारे तो अपने चढ़ावे के लिये खुद का बेटा होते हुए भी दूसरों पे निर्भर हैं।"
‘ग’(एक लंबी सांस छोड़ते हुए)-"शायद आज कल चढ़ावे का यही मतलब रह गया है।"
मंदिर में एक सन्नाटा सा पसर जाता है।
