नवरात्रि में कन्या पूजन
नवरात्रि में कन्या पूजन
सनातन वैदिक धर्म में नवरात्रि का बहुत महत्व है । वर्ष में दो प्रकट तथा दो गुप्त कुल चार नवरात्रियाँ होती है । हिन्दू पंचाग के चैत्र तथा आश्विन मास में प्रकट तथा आषाढ़ व पौष मास में गुप्त नवरात्रि मनाई जाती है । प्रकट नवरात्रि बहुत धूमधाम से मनाया जाता है । इसका श्रीगणेश चैत्र/आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को कलश एवं घट स्थापना से होता है तथा समापन हवन और कन्या पूजन से होता है ।
देवी दुर्गा का कन्या रुप में पूजन भारतीय संस्कृति तथा वैदिक धर्म की विशेषता है । कन्या पूजन के बिना नवरात्रि का अनुष्ठान पूर्ण नहीं होता ।
कन्या पूजन तथा कन्या भोजन की शास्त्रोक्त तथा सर्व मान्य प्रचलित विधि इस प्रकार है –
कन्या पूजन २ से लेकर १० वर्ष तक की अवस्था वाली नौ कन्याओं का किया जाता है । यह घोर कलिकाल है । क्योंकि आजकल १० वर्षीया कन्या भी रजस्वला हो जाती हैं । अतः ऐसी कन्याओं को, जो रजस्वला होती हों, भले ही उनकी अवस्था दस वर्ष हो, उन्हें कन्या पूजन में सम्मिलित नहीं करना चाहिए ।
नवरात्रि में प्रत्येक दिन कन्या पूजन तथा कन्या भोजन कराने का विधान है । प्रथम दिवस दो वर्षीय (एक) कन्या का पूजन करना चाहिए । द्वितीय दिवस में पूर्व दिवस वाली कन्या तथा एक तीन वर्षीया कन्या का पूजन कर उन्हें विधि पूर्वक भोजन कराना चाहिए।
इसी क्रम से आगे बढ़ते हुए नवमीं तिथि को नौ कन्याओं का पूजन कर उन्हें श्रद्धा भक्ति पूर्वक भोजन कराना चाहिए । चूँकि आज के भागदौड़ वाले समय में ऐसा करने में बहुत सी व्यवहारिक कठिनाईयां आती है । अतः सामान्यतया नवमी तिथि को ही कन्या पूजन तथा कन्या-पूजन किया जाता है ।
यदि अष्टमी तिथि को हवन करने के पश्चात कन्या भोजन का आयोजन किया जाता है, तब इसमें सिद्धि दात्री देवी सम्मिलित नहीं हो पाती क्योंकि उनकी आगमन तिथि नवमी है । अष्टमी को कन्या पूजन तभी करना चाहिए, जब यह नवमी को भी किया जाना हो !
दो वर्ष से लेकर दस वर्ष तक की आयु वर्ग की नौ कन्याओं को मुख्य कन्या पूजन में सम्मिलित किया जाता है । यह ध्यान रखना चाहिए कि एक ही आयु वर्ग की दो या अधिक कन्यायें न हों ।
कन्या पूजन से एक रात्रि पूर्व भगवती दुर्गा से प्रार्थना करनी चाहिए कि – हे माता ! कल चैत्र/आश्विन शुक्ल नवमी तिथि को आप कन्या रुप में मेरे घर पधारिये तथा भोजन-प्रसाद ग्रहण कीजिए ! आपको कन्या रुप में पूजने की मेरी/हमारी बड़ी लालसा है । अतः हे जगज्जननी आप मेरा/हमारा मनोरथ सफल करें ‘ ।
इस के पश्चात् कन्याओं को (एक दिन पहले) चंदन, अक्षत, रोली आदि से तिलक कर उन्हें विनम्रतापूर्वक भोजन का निमंत्रण देना चाहिए ।
२,३,४,५,६,७,८,९ तथा १०, वर्ष की अवस्था वाली एक-एक कन्या को ही निमंत्रित करनी चाहिए ।
अपने कुल परिवार की कन्याओं का पूजन करना बहुत फलदायी होता है । ब्राह्मण कुल की कन्याऐं कन्या पूजन हेतु शुभ होती है । इनके अभाव में मित्रों तथा परिचितों की कन्याओं को निमंत्रित करना चाहिए ।
सुंदर मुखमुद्रा वाली कन्याओं को निमंत्रित करना चाहिए । निमंत्रित कन्याओं का मुख, होंठ, आँख नाक कान आदि अंगों में किसी भी प्रकार की विकृति न हो यह अवश्य ध्यान रखें । उँगली आदि कोई भी अंग कम या अधिक न हो । अंग भंग वाली कन्या को भी मुख्य कन्या पूजन में शामिल नहीं कया जाता । रोगग्रस्त कन्या को भी मुख्य कन्या पूजन मे सम्मिलित नहीं करना चाहिए ।
यदि विकृत अंगों वाली कोई कन्या निमंत्रण या बिना निमंत्रण के आ गई हो, अथवा एक ही उम्र की एक से अधिक कन्या हों । ऐसी स्थिति में उन्हें अलग पंक्ति में बैठाकर आदरपूर्वक भोजन कराना चाहिए तथा दक्षिणा आदि देकर उन्हें संतुष्ट करना चाहिए ।
साक्षात जगज्जननी घर में भोजन के लिए पधार रही हैं, यह बड़े ही सौभाग्य की बात है । अतः उन्हें अपनी रसोई में बने पकवान परोसने का यत्न करना चाहिए । बाजार में बने खाद्य पदार्थ जितने कम हों उतना ही अच्छा है ।
सर्वप्रथम कन्याओं का पाँव पखार कर उनका आलता, बिंदी, चूड़ियां आदि से श्रृंगार करना चाहिए । यथासंभव वस्त्राभूषण भेंट करना चाहिए । हम श्रीविग्रह या चित्र रुप में माताजी का श्रृंगार वैसा नही कर सकते, जैसा कि हमारी इच्छा होती हैं कि हो ! इसलिए पूजन तथा भेंट की सामग्रियों को स्पर्श करा कर ही संतोष करना पड़ता है ।
देवी माँ कन्या रुप में आपके सामने उपस्थित हैं, आप इनके बाल संवार सकती हैं, बालों में मनपसंद पिन लगा सकती है, पाउडर वगैरह लगा सकती हैं काजल,बिंदी, आदि लगा सकती हैं । यदि वस्त्राभूषण की व्यवस्था हो तो उसे पहना सकती हैं ।
घर में जहाँ देवस्थान हो या जहाँ घटस्थापना किया गया हो उसी के सम्मुख कन्याओं को भोजन के लिए आसन देना चाहिए । नवरात्रि में दुर्गाजी जिस क्रम में ब्रम्हचारिणी, चंद्रघण्टा, कुष्मांडा आदि रुपों में पूजित होती हैं । कन्याओं को भी उसी क्रम में बाँये से दाँये आसन देना चाहिए ।
सर्वप्रथम दो वर्षीया कन्या, उसके बाद तीन वर्षीया, फिर चार वर्षीया इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए सबसे आखिरी में सिद्धि दात्री देवी की रुपवाली दस वर्षीया कन्या को आसन देना चाहिए ।
कन्याओं के सामने एक बालक को भी भोजन के लिए बैठाना चाहिए । बालक को भोजन कराये बिना कन्या भोजन अधूरा रहता है ।
इसके पश्चात पंचोपचार विधि (चंदन,अक्षत, पुष्प, नैवेद्य तथा आरती) से कन्याओं का पूजन करना चाहिए । फिर देवियों से आज्ञा लेकर उन्हें भोजन परोसना चाहिए । देवी माँ को हलुआ पूड़ी खीर, मालपुए तथा मिठाईयाँ अत्यधिक प्रिय है । अतः उपरोक्त सामग्री अवश्य तैयार करनी चाहिए ।
नमकयुक्त खाद्य पदार्थ न परोसना ही उत्तम है । देव पूजन तथा कन्या पूजन में उड़द से बने खाद्य पदार्थ वर्जित है । यह ध्यान रखना चाहिए ।
ब्रम्हचारिणी तथा चंद्रघण्टा रुपी देवियाँ बहुत बाल रुप में होती हैं । अतः उन्हें अपने हाथ से खिलाने का सुअवसर नहीं चूकना चाहिए । पूछ पूछ कर तथा विशेष आग्रह - मनुहार करते हुए उन्हें भोजन कराना चाहिए । भोजन कैसा बना है, रुचिकर है या नहीं यह भी अवश्य पूछना चाहिए । ऐसा करने पर माता जी बहुत प्रसन्न होती हैं ।
भोजन पश्चात उनके हाथ और मुख की शुद्धि कर उन्हें बीड़ा पान भेंट करना चाहिए । भोजन पान सुपारी के बिना पूर्ण नहीं होता । कन्याओं की रुचि के अनुसार पान पहले से ही लगवा कर रखना चाहिए ।
अंत में दक्षिणा देकर उनकी चरण वंदना करें कि हे माता ! मैने/हमने यथाशक्ति, यथाबुद्धि और यथा भक्ति आपका पूजन किया । इसमें हमसे मनसा वाचा कर्मणा, जाने और अनजाने में, अभिमान वश तथा अज्ञानतावश जो भी त्रुटि और अपराध हुआ हो उसे आप क्षमा करें ! और शुभ आशीर्वाद प्रदान करें !
या देवी सर्व भूतेषु क्षमा रुपेणि संस्थिता , नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम: ।
देवियों को प्रणाम करके उन्हें सादर उनके निवास तक पहुंचा कर तब प्रसाद ग्रहण कर नवरात्रि व्रत- उत्सव को संपन्न करना चाहिए ।
जयंती, मंगला,काली,भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा, शिवा क्षमा धात्री, स्वाहा स्वधा नमोस्तुते ।
जय आदिशक्ति माँ महामायादेवी !
