मिट्टी की खुशबू
मिट्टी की खुशबू
गाँव जाने की ललक हमारी बचपन से रही ! मिट्टी की खुशबू ..पेड़ पौधों की हवा ..सौंधी -सौंधी मदमस्त बनाने वाली भांग की पौधों की महक ..का एहसास ही बता देती है कि हम अपने गाँव आ गए ! अँधेरी रातों में भी ट्रेन की खिड़कियों से आभास होने लगता है ! ट्रेन रूकती है स्थानीय भाषाओं का शोर गुल सुन हमें यकीन होने लगता है ..यही हमारी जन्म भूमि है। कहने के लिए तो हम कह सकते हैं " सम्पूर्ण विश्व ही हमारा घर है " परन्तु हम गाँवों के परिवेशों में बड़े होते हैं, गाँवों से हमारा लगाव होता है। हम एक दूसरे को भलीभांति जानते हैं ! हमारे बाबू जी हमें जब गाँव ले जाते थे तो प्रत्येक दिन गाँव के लोगों से मिलने का कार्यक्रम होता था।
" आज चलो ...अनुरुध्य काका के पास ..चलो यमुना दादा से मिलके आते हैं .. राजकुमार काका ,फगु दादा ,सहदेव गुरुजी ,लवो काका, झब्बो काका .. " सबों से परिचय करना और सारे बड़ों को झुक कर प्रणाम करना और उन लोगों के आशीष पाकर अपने को धन्य समझना पड़ोस के गाँव से भी लोग मिलने आ जाते थे। सबसे मनमोहक बातें वहाँ की स्थानीय भाषा है जो ह्रदय को छू देती हैदेती है। ज्यों ही हमारे कदम हमारे स्टेशन पर पड़ते हैं कुली, रिक्शावाला और टेम्पोवाला हमारी अपनी भाषा में बोलना प्रारंभ कर देते हैं, जो एक सुखद एहसास होता है। हम क्यों ना आधुनिक व्यंजनों की वाध्यता से अपनी क्षुधा मिटाते रहें पर माँ की हाथों का व्यंजन को भला कौन भूल सकता है ?
'माँ तुम्हारे हाथों की बनी मछली जो बनती है उसका जवाब नहीं।' जिन -जिन व्यंजनों से हम दूर रहे माँ के पास आकर सारी अभिलाषाएं पूरी हो जाती है। पर माँ तो माँ होती है 'आज अपने बच्चों की पसंद की बथुआ साग बनाउंगी...दही बड़ा बनाना है इत्यादि इत्यादि ..पर इन कम दिनों में मन की मुराद माँ की पूरी नहीं होती। हमने भी प्रायः प्रायः विभिन्न प्रान्तों का स्वाद चखा पर यहाँ की बात ही कुछ और है ..यहाँ का "झालवाडा", "बैगनी पकौड़ा ", "पियाजी पकौड़ा ", घुघनी "मुड़ी, जलेबी, सिंघाड़ा शायद ही कहीं मिले ? जिस परिवेश में हम जन्म लेते हैं वहां की बनी व्यंजन के हम सदा अभ्यस्त होते रहते हैं ! ..हम तो अपने गाँव का गौरव, भाषा,संस्कार, व्यंजन और महत्व का संदेश तो आनेवाली पीढ़ियों को सुनते हैं और अपने गाँव की मिट्टी की खुशबू सब पर बिखेरते हैं।
