मेरी भूल
मेरी भूल


मैं आना तो नहीं चाहता था किंतु मेरे पुराने मित्र की बेटी की शादी थी। उसने बहुत ज़िद की तो आना पड़ा। मेरी अनिच्छा का कारण मेरा डर था। मुझे पता था कि वसुधा का संबंध मेरे दोस्त की बेटी के होने वाले ससुराल से था। इस बात की आशंका थी कि उससे यहाँ भेंट हो जाए। मैं डर रहा था कि यदि ऐसा हुआ तो मैं उसका सामना कैसे करूँगा।
इंसान अपने अतीत से तभी डरता है जब उसने कोई भूल की हो। मुझसे भी अतीत में एक भूल हुई थी। अपनी भूल को स्वीकार ना करने की।
पच्चीस वर्ष पूर्व वह शाम मेरी स्मृतिपटल पर छा गई। जब गोमती के किनारे आखिरी बार मैं वसुधा से मिला था। मेरी आँखों के सामने उसकी वह तस्वीर साफ थी जब वह गुस्से में मुझसे पूँछ रही थी,
"क्या मतलब है तुम्हारा कि तुम बात नहीं कर सकते ? तुम ये नहीं कह पा रहे हो कि तुम मुझसे प्रेम करते हो। शेखर तुम कोई छोटे बच्चे हो जो ताउम्र अपने पिता की ऊँगली पकड़कर चलोगे। कैसे मर्द हो ?"
मैंने अपनी बात रखी थी,
"मर्दों की भी अपनी मज़बूरियां होती हैं।"
उसने अपनी बड़ी बड़ी आँखों को और गोल कर के कहा,
"ओह....हाँ जब तुम जैसे मर्द अपनी चाहतें पूरी कर लेते हैं तो मज़बूर हो जाते हैं।"
उसका वह तंज़ मुझे चुभ गया था। मैंने भी तैश में कहा,
"तो क्या जो हुआ उसमें सिर्फ मेरा ही कसूर था ?"
उसने भड़कते हुए कहा,
"नहीं उसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं था। गलती तो मेरी है जो मैं तुम्हें पहचान नहीं सकी। माँ कहती थी कि तुम एक कमज़ोर इंसान हो। मुझे धोखा दोगे। मैनें नहीं सुना और धोखा खा गई।"
उसने क्रोध से मेरी तरफ देखा। फिर बोली,
"मैं भले ही तुम्हें न जान पाई किंतु तुम जान लो मैं उन औरतों में नहीं हूँ जो मर्द की बेवफाई पर उसके पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाती हैं। मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी।"
उसने अपने पेट पर हाथ रख कर एक दृढ निश्चय के साथ कहा,
"ना ही इस अजन्मे को बिना किसी दोष के सजा दूँगी। इसे पैदा करूँगी और अकेले पालूँगी।"
उस दिन वसुधा की आँखों में अपने लिए क्रोध के अतिरिक्त मैं मेरी तुच्छाता और नगण्यता साफ़ देख सकता था। फिर भी कुछ कर सकने की हिम्मत नहीं जुटा सका। वसुधा लखनऊ छोड़ कर चली गई। मैंने अपने पिता की इच्छा से शादी कर ली।
मेरे और मेरी पत्नी के बीच संबंध अच्छे नहीं थे। मेरे भीतर भरी हुई कड़वाहट इसका कारण थी। ज़िंदगी बोझिल लगने लगी थी। तभी रीमा हमारे जीवन में आई। लगा ज़िंदगी इतनी भी बेरहम नहीं है। रीमा वह कड़ी थी जो हमारे रिश्ते को बांधे थी। मेरी ज़िंदगी का केंद्र रीमा थी। धीरे धीरे समय बीतने लगा। दर्द अब कुछ कम होने लगा था। कभी कभी वसुधा का ख़याल आ जाता था तो सोचने लगता कि कैसे उसने दुनिया का सामना किया होगा। कैसे बिना बाप के उस बच्चे को अकेले पाला होगा।
सारा कार्यक्रम मेरे दोस्त के फार्महाउस में हो रहा था। यह इतना बड़ा था की आप चाहें तो अपने लिए एक कोना तलाश सकते थे। धूम धड़ाके के बीच मुझे भी एक जगह मिल गई जहाँ कुछ देर सुकून से बैठ सकता था।
जिस चीज़ से आप भागते हैं वही आपके सामने आ जाती हैं। मैं एकांत में बैठा था कि अचानक वसुधा सामने से आती दिखाई पड़ी। इतने वर्षों के बाद देखा था। कुछ क्षण लगे किंतु मैं पहचान गया। मैंने नज़रें चुराने की कोशिश की।
उसकी निगाह भी मुझ पर पड़ी। मेरे चेहरे से वह ताड़ गई कि मैं उससे बचना चाहता हूँ। उसने भी जानबूझकर मुझे छेड़ते हुए कहा,
"कैसे हो तुम ? पहचान तो गए हो। तुम्हारी आँखों से पता चल रहा है।"
उसके इस अचानक किये गए सवाल से मैं हड़बड़ा गया। जवाब देते हुए बोला,
"हाँ पहचान लिया....मैं ठीक हूँ। तुम कैसी हो ?"
मेरी बात का जवाब देने की जगह मेरे चहरे का निरिक्षण करते हुए उसने कहा,
"उम्र का असर दिखने लगा है।"
"वक़्त तो अपना प्रभाव दिखाता ही है। कितना वक़्त बीत गया है।"
मैं सही कह रहा था। सचमुच वक़्त ने बहुत कुछ बदल दिया था। डर कर मेरे पैरों से लिपट जाने वाली मेरी बेटी अब विदेश में अकेले रह रही थी। मेरी पत्नी और मैंने अब एक दूसरे की कमियां देखना छोड़ दिया था। अब हम शांति से एक छत के नीचे रहते थे।
मैं भी उसे ध्यान से देखने लगा। वह भी बहुत बदल गई थी। वक़्त ने आज अचानक मुझे फिर उसके सामने लाकर खड़ा कर दिया था। मैं उस बच्चे के बारे में जानना चाहता था जिसे वह अपनी कोख में लेकर गई थी। किंतु साहस नहीं कर पा रहा था। वो मेरे मन के असमंजस को समझ गई।
"कोई बात है शेखर ? कुछ पूंछना चाहते हो। "
मैं कुछ हिचकते हुए बोला,
"वो कैसा है ? लड़का है या लड़की ?"
उसने बड़ी ही रुखाई से कहा,
"क्या करोगे जान कर ? उसे अपना नाम दोगे।"
मैं चुप हो गया। मेरे भीतर वह हिम्मत नहीं थी। तभी किसी ने उसके पास आकर कहा,
"मम्मी मुझे आइसक्रीम खानी है।"
एक तेईस चौबीस साल का लड़का एक छोटे बच्चे की तरह ज़िद कर रहा था। तभी एक पुरुष आया जो उसे फुसला कर ले गया। जाते जाते वह वसुधा को तसल्ली दे गया की वह फिक्र न करे वह सब संभाल लेगा।
मैंने प्रश्न भरी दृष्टि से वसुधा को देखा। एक आह भरते हुए उसने बताया,
"तुम तो हिम्मत कर नहीं सके। शादी कर घर बसा लिया। वैभव के जन्म के बाद मैं लखनऊ छोड़ कर दिल्ली आ गई। बड़ा कठिन दौर था। खुद के पैरों पर खड़ा होना था। अपनी संतान को अकेले पालना था। मैं बहुत कठिनाई से दोनों काम करने लगी। जैसे जैसे वैभव बड़ा होने लगा यह बात साफ़ हो गई कि वह दूसरे बच्चों की तरह नहीं है।"
कुछ रुक कर वसुधा ने आगे कहा,
"उस समय लगता था जैसे सारी दुनिया ही मेरी दुश्मन हो गई है। मुझे तोड़ देना चाहती है। उसी समय रितेश ने मेरे जीवन में कदम रखा। मैं किसी पर भी यकीन करने की स्तिथि में नहीं थी। किंतु रितेश ने प्रेम और हमदर्दी से मेरा विश्वास जीत लिया। हम दोनों ने शादी कर ली। मुझसे अधिक वैभव का ख़याल उसने रखा। उसे कभी पिता की कमी महसूस नहीं होने दी।"
उसी समय रितेश वहां आ गया। वसुधा के कंधे पर हाथ रख कर बोला,
"सब ठीक है। वैभव सब के साथ बहुत खुश है।"
फिर मेरी तरफ देख कर बोला,
"लगता है आप दोनों बहुत दिनों बाद मिले हैं।"
उसने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा कर कहा,
"मैं रितेश...वसुधा का पति।"
मैंने भी हाथ मिलाते हुए अपना परिचय दिया। रितेश उठते हुए बोला,
"आप लोग बात कीजिये मैं चलता हूँ। मैं तो बस वसुधा को तसल्ली देने आया था।"
यह कह कर वह जाने लगा। वसुधा बोली,
"नहीं मैं भी चलती हूँ। हमने बहुत बातें कर लीं। अब इन्हें कुछ देर अकेला रहने दें। "
यह कह कर वसुधा भी उसके साथ चली गई।
सब कुछ जानने के बाद मैं अपनी भूल पर लज्जित था। स्वयं को बहुत छोटा महसूस कर रहा था। मेरी नज़रों में रितेश का कद मुझसे काफी ऊँचा था।