मेरे इष्ट
मेरे इष्ट
इस बार जब पारुल छुट्टियों में घर आयी, तो हैरान रह गई। दादी को इस रुप में देखने की तो वो सोच ही नहीं सकती थी, माँ ने बताया तो था, पर कानो सुनी पर कम विश्वास था।
"अरे रे, मुझे छू ना देना कमला। पारुल अभी दो दिन रसोईघर और पूजा से दूर ही रहना, बिना नहाये कहाँ पूजा घर मे घुसे चले आ रहे हो तुम, " ये ही सब बातें सुनते हुए पारुल का बचपन बीता है। लेकिन जब से दादाजी को लकवा पड़ा है, दादी को ना नहाने की सुध, ना ही पूजा का ध्यान। बस दादाजी के पास बनी रहती है, कोशिश करती है दादाजी के अधिकांश काम दादी स्वयं ही कर ले, पापा मम्मी को दादाजी का कम से कम काम करने देती है।
"सुनिए, आप आराम से करवट लेना, कोई जल्दी नहीं है। बस आपकी चद्दर और बदल दूँ, फिर आप को चाय बिस्किट देती हूं। कमला, आजा अब इस कमरे की सफाई कर ले फटाफट।"
दादाजी अस्पष्ट शब्दों में कुछ बोले तो दादी का स्नेहसिक्त जवाब आया "हाँ, भई हाँ..मैं भी अभी चाय ले लूँगी, पहले आपको तो खिला दूँ। "
पारुल अश्रुपूरित निगाहों से दादी को निहारते हुऐ सोच रही थी।
दादी आज भी तो अपने इष्ट की पूजा-सेवा उतनी ही लगन से कर रही है, बस पहले लड्डू गोपाल की करती थी, अब दादाजी की।