मेरा सलोना कान्हा
मेरा सलोना कान्हा
पुष्पा आई हेट टीयर्सअंकुर हमेशा की तरह नाटकीय अंदाज़ में डायलॉग बोलते हुए राजेश खन्ना की तरह थोड़ा तिरछा होकर मुस्कुराया तो सुगंधा की हँसी छूट गई।
"माँ! आपका कुछ समझ नहीं आता। खुशी में भी रोते हो और दुख में तो रोना होता ही है, ऐसा क्यों?"
अब सुगंधा अपने नटखट कान्हा को कैसे बताती कि कितनी मुश्किलों से उसने अपने लाल को बड़ा किया है। जिसे खत्म करने की साज़िश तो शायद उसके गर्भ में रहते ही शुरू हो गई थी ज़ब उसकी जेठानी ने उसके पति के मृत्यु के लगभग अठारहवें दिन उसे दूध में ऐसी दवाई मिलाकर पीने देने आई थी जिसके कुछ घंटे बाद उसका गर्भपात हो जाता। सुगंधा के मना करने पर ज़ब मीना ने ये कहा कि इससे उसके गर्भस्थ शिशु को बहुत फायदा पहुँचेगा तो सुगंधा जबरदस्ती वह दूध पी गई।सुगंधा आज ज़ब हँसते खेलते चौदह वर्षीय अपने किशोर बेटे को देखती है तो उसे जेठानी के शब्द और भावभंगिमा सब याद आ जाते हैँ।उसकी जेठानी मीना उसे और उसके पति श्रीधर को बिल्कुल पसंद नहीं करती थी। और सास को पसंद करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता वो सौतेली जो थी।
जमींदारों के घर से ज़ब एक किसान की बेटी सुगंधा का रिश्ता आया तो एकबारगी किसीको यकीन नहीं आया। श्रीधर को बहुत पसंद आई थी सुगंधा। पर उनके प्यार को किसीकी नज़र लग गई। शादी के आठवें महीने ही गर्भवती सुगंधा को छोड़कर श्रीधर चल बसे। शिकार खेलने गए तो लाश बनकर वापस लौटे। जंगली चीते ने हमले के वक़्त उनकी आंते तक बाहर निकाल दी थी। अपने सुदर्शन पुत्र की यह दुर्दशा सास नहीं देख पाई और बेहोश हो गई और सुगंधा की तो दुनियाँ ही उजड़ गई।आज श्रीधर को गए हुए अठारहवां दिन था। गर्भावस्था में एक तो सुगंधा को मितली की वजह से कुछ खाने को मन नहीं करता था ऊपर से पति के खोने के अगाध दुख ने जैसे उसकी सुध हर ली थी।उस दिन सुबह से ही सुगंधा को अपने पेट में मरोड़ें सी उठती प्रतीत हो रही थी। इसलिए वह अपने कमरे में पलंग पर पेटकुनियाँ देकर पड़ी हुई थी कि इतने में जेठानी आई और उसे मुनहार करके पानी में ऐसी दवाई मिलाकर लाई जिससे कुछ घंटों बाद सुगंधा का गर्भपात हो जाता। पहले तो सुगंधा ने मना किया फिर शायद कुछ तिल के दाने उन्होंने भूनकर डाले थे जिससे पानी से बड़ी सोंधी सोंधी खुशबू आ रही थी। अतः सुगंधा गटागट आधे से भी ज़्यादा पानी पी गई।कदाचित सुगंधा इस रौ में यह नहीं देख पाई कि उसके पानी पीते ही जेठानी मीना के होंठों पर एक विद्रुप सी हँसी खेल रही थी और आँखों में अपनी कलुषित योजना की सफलता की चमक थी। आखिर हो भी क्यों ना..... जिस दवाई की कुछ बुँदे ही नवनिर्मित भ्रूण को नष्ट करने में यथेष्ठ होती थी सुगंधा उसका आधा ग्लास पी गई थी। यानि कि गर्भपात होने की शत प्रतिशत संभावना थी।पर वो कहते हैँ ना.....जा को राखे साइयाँ मार सके ना कोयबस उस दिन भी अंकुर को बचाने जैसे साक्षात भगवान खड़े हो गए थे।जबसे गर्भ का दूसरा महीना चढ़ा था सुगंधा को उल्टी कुछ ज़्यादा ही आने लगी थी। एक तो कुछ खाया पिया नहीं जाता था ऊपर से अगर खा भी लो तो उल्टी हो जाती थी। इसलिए सुगंधा और श्रीधर के साथ सुगंधा के माता पिता भी बहुत परेशान रहते थे कि इस तरह तो सुगंधा अपने बच्चे का सही तरीके से परवरिश भी नहीं कर पायेगी।पर इस उल्टी की वजह से पानी के संग मिली हुई सारी दवा बाहर निकल गई थी और अंकुर की जान बच गई थी।
उसके बाद भी निः संतान जेठानी अंकुर को तरह तरह से नुकसान पहुँचाने की कोशिश करती रहती ताकि वह मर जाए और फिर सुगंधा को नौकरानी की तरह रखें।गाय की तरह सीधी सुगंधा अपने पति श्रीधर को तो खोकर आधी हो चुकी थी अगर उसके भविष्य की एकमात्र उम्मीद और आशा की डोर उसके बच्चे की गर्भनाल सुगंधा से काटकर अलग कर दिया जाए तो कुछ सालों में रिसरिसकर सुगंधा भी खत्म हो जाएगी। ऐसा मीना का मानना था।जेठजी इन सब मामलों में तटस्थ दीखते पर सुगंधा का ये मानना था कि इन सबमें उनकी भी मौन सहमति ज़रूर रहती होगी। आखिर सौतेले भाई के वंश को बढ़ता देखकर गिरधरप्रताप सिँह को कैसे ख़ुशी हो सकती थी।अमरीशप्रताप सिंहजी की पहली पत्नी गिरज़ा ज़ब गिरधर को जन्म देते हुए गुज़र गई तो उसके बाद नन्हें शिशु के पालन पोषण को मद्देनज़र रखते हुए उन्होंने गरीब परिवार की सुलक्षणा बेटी कुसुम लता से विवाह किया जिससे उन्हें श्रीधर और दामिनी दो बच्चे हुए। दामिनी तो ब्याहकर ससुराल जा चुकी थी। बच रहा श्रीधर तो उसकी शादी भी एक अच्छी और मितभाषि लड़की सुगंधा से कर दी गई। एक रात अमरीश प्रसादजी को दिल का दौरा आया और वो सुबह का सूरज़ देखने से पहले ही चल बसे तो कुसुमलता खुद को एकदम असहाय समझने लगी।उनकी बड़ी बहू मीना जमींदार खानदान की होने के साथ स्वाभाव से बहुत ईर्ष्यालु टाइप की थी। किसी कारणवश गिरधरजी पिता बनने में असमर्थ थे इसलिए मीना सुगंधा से बहुत ज़लती थी क्योंकि वह गर्भवती थी। और इधर मीना चाहकर भी माँ नहीं बन सकती थी।पर ज़ब पानी में मिला दवाई भी मितली संग बह गया और अंकुर की जान बच गई तो मीना और भी जलभुन गई।
बाद में घर की एक नौकरानी से सुगंधा को मीना के कुत्सित इरादों का पता चला तो वह अंकुर को लेकर और भी सतर्क हो गई।बाद में जेठानी की ख़राब नियत जानकर सुगंधा के पिता उसे अपने साथ ले आए थे। फिर गाँव की खेती और बटाईदारों से श्रीधर के हिस्से की ज़मीन से जो उपज़ होती उसे बेचबाचकर अपना हिस्सा रखकर सास हर महीने गाँव के पढ़े लिखे लड़के किशोर से मनीऑर्डर करवा देती।अपनी बड़ी बहू मीना की मंशा जानकर सुगंधा की सास भी अपने होनेवाले पोते या पोती के लिए काफ़ी सतर्क हो गई थी।आज पूरे पंद्रह साल बाद सुगंधा उस कुल के वारिस को लेकर ससुराल जा रही थी। अत्यधिक नशे के सेवन से जेठजी की अकाल मृत्यु हो गई थी।मीना अब पहले जैसी उद्दाम नहीं रही थी। सुगंधा अपने बेटे को गर्व से देखते हुए सोचती है,आज उसके पति और अंकुर के पिता श्रीधर जीवित होते तो अपने बेटे को देखकर कितना खुश होते।सोचते सोचते सुगंधा को अपने पति श्रीधर की कही बात याद आ गई। ज़ब वह बहुत खुश होते तो कहते,"हम सब रंगमंच की कठपुतलियाँ हैँ जिसकी डोर ऊपरवाले के हाथ में है "यह सोचकर सुगंधा की आँखें गीली होने ही वालीं थी कि अंकुर ने उसे फिर से हंसा दिया। अब माँ बेटा दोनों समवेत स्वर में बोल उठे....."पुष्पा, आई हेट टीयर्स"
