मेरा प्यारा रेडियोग्राम
मेरा प्यारा रेडियोग्राम
सन उन्नीसो उनसठ का होगा वो साल। या शायद एक दो साल आगे पीछे। पापा ने एक लकड़ी का टेबल लाकर हॉल में सजाया था।पहलेपहल तो मुझें लंबा चौड़ा बक्सा जैसा महसूस हुआ। उम्र भी तो कुछ नासमझी की ही थी। फिर रविवार के दिन पापा ने उस ग्रामोफ़ोन पर एक गोलाकार सी थाली अटकाई। और उस पर दरवाज़ों पर लगाने जैसी ही लगभग लंबी सी एक कुंडी भी अटकाई। और फिर उसमें से सुरीली आवाज़ें आने लगीं। मैं घंटों उसे सुनती रहीं। सुधबुध खोते हुए। वो तो माँ ने उस दिन लंच के लिए आवाज़ लगाई। और जबरन खाना खाने को आग्रह करते हुए ले गई। वरना, मैनें तो बस उस तीन चार साल की उम्र में तय ही कर लिया था कि,
...तेरा मेरा साथ रहे... सदियों पुराना...
... जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ..!
फिर दूसरें ही दिन जब पापा बेंक चले गए। और माँ रसोईघर में बिज़ी थीं, मैनें खुद से होकर के वो गाने बजाने वाले डिब्बे - ग्रामोफ़ोन को चलाने का खूब प्रयास किया। पर, नाकाम रहीं। कई बार कोशिश की, लेकिन नाकामयाबी ही हाथ लगीं। कारण, वो लंबी सी कुंडी जैसी पिन ही अटकानी नहीं आयीं। और तभी, मेरा उल्टा हाथ उसके साथ जुड़े हुए वो ऑल इंडिया रेडियो AIR (आकाशवाणी) को छू गया। और देखते ही देखते उसमें से भी आवाज़ें आने लगीं। मैं तो जैसे उछल ही पड़ी।
गाने बजाने वाले दो दो डिब्बे!! और वो भी एक से बढ़कर एक!! अह्हा....
ख़ुशी के मारे मेरे नन्हें नन्हें पाँव ज़मीन पर टिकने का नाम ही भूल चूके थे। और तो और उस ग्रामोफ़ोन का मेरे हाथों न बजने का अफ़सोस भी कहीं हवा में उड़न छू हो गया। स्टेशन की सेटिंग्स नहीं आती थी तब। फिर भी उस गोलाकार बटन को आगे पीछे कर उसे बजा लेती। अपने से ही कुछ न् कुछ जुगाड़ करना जो सीख गई थी। और खुशी से झूम भी उठतीं। बस, फिर क्या था। वो ग्रामोफ़ोन के साथ जुड़ा हुआ वो रेडियो मेरा जीवनसाथी बन गया।
कई दिनों बाद उसका नाम हत्थे चढ़ा था - रेडियोग्राम!!
तब तक तो उसे गाने बजाने वाले डिब्बे के नाम से ही अपने फ्रेंड्स को उसे इंट्रोड्यूस करती। बालमंदिर में जानें का भी अब जी नहीं करता था। वो तो पापा की फटकार और माँ की डाँट मुझें 'रेडियोग्राम' से दूर स्कूल जाने के लिए मजबूर करनें लगी। और तो और चाची और माँ ने भी युक्ति लड़ानी शुरू कर दी। और मुझें लालच दी जाने लगीं।
"देख गुड्डो, स्कूल में अच्छे से पढ़ाई वढ़ाई करेंगी। तो ही तुझें 'रेडियोग्राम' पर 'बिनाका गीतमाला' प्रोग्राम सुनने मिलेगा।
साठ के शुरूआती दौर में पहलेपहल 'गीतमाला की छाँव में' नामक प्रोग्राम में गाने के बोल देकर तुरंत गाना आरंभ न होता था। उसके लिए इंतज़ार करना पड़ता। एडवर्टाइज के पश्चात उसी गाने के बोल को सुनने में होश गँवाना आम बात होने लगी थी।ख़ास कार्यक्रमों में से एक था 'जयमाला' कार्यक्रम। 'जयमाला' सोमवार से शुक्रवार तक फौजी भाईयों की पसंद के फिल्मी गीतों का कार्यक्रम रहता था। जबकि शनिवार को कोई मशहूर फिल्मी-हस्ती उसे पेश करती थी।और विगत कुछ वर्षों से रविवार को जयमाला का नाम जयमाला संदेश होता चला गया। जिसमें फौजी भाई अपने आत्मीय जनों को और फौजियों के आत्मीय जन देश की सेवा कर रहे उन फौजियों के नाम अपने संदेश विविध भारती के माध्यम से देते रहतें थे। वो कार्यक्रम लगातार लोकप्रियता के शिखर पर रहा। मेरी बात की जाये तो मुझें कॉमेंट्री से थोड़ी बहोत चिढ़ थी। गानों में ही मन उतना घुलने लगता, कि, उसमें आ रहा हर दूसरा तीसरा कॉमेंट्री व्यत्यय ही लगता।
बिनाका गीतमाला की तरह ही जयमाला प्रोग्राम भी मेरा चहिता बन गया था। और उसकी खास बात यह थी कि विविध भारती पहला ऐसा रेडियो चैनल या मीडिया चैनल था जिसने खासतौर पर फौजियों के लिए कोई कार्यक्रम आरंभ किया था। और उस जयमाला संदेश में फौजियों की ज़ुबानी सुनना बहुत भाता था। और उनकीं बहादुरी के किस्से माँ से सुनने भर से मन में अजीब सा जोश भर जाता था। मज़ेदार किस्सा याद आ गया। शनिवार की ही रात थी। फ़िल्मी हस्ती में बलराज साहनी जी आये हुए थे। और वे अपने फिल्मी सफ़रनामे को दोहराते हुए फौजियों के मनपसंद गानों को सुनवा रहे थे। जिनमें से एक उनकीं फ़िल्म 1962 की 'हक़ीकत' का मशहूर गाना
'... कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथीयों..
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों...
- वो गाना सुनने के बाद माँ ने अपनीं क़िस्सागोई यादों के भँवर में डुबकी लगाते हुए सुनाई तो मन में ठान लिया था कि, बड़ी होकर सिपाही बनूँगी। और रात और दिन वही बड़बड़ाये जाती। कोई पूछता कि, "गुड्डो रानी, बड़ी होकर क्या बनना चाहोगी?" तो झट से मुँह खुलकर गुब्बारे सा फूल जाता और मैं कह उठतीं - "मैं बड़ी होकर सिपाही बनूँगी। अपने देश में घुसने वाले उन घुस... (*घुसपैठ - ये शब्द तब् बोलने नहीं आता था, पर समझ जरूर जाता था, कि, जबरदस्ती अपने देश में घुसने की कोशिश करने वाले बुरे लोग हैं वो).. पैईट - जैसा ही कुछ शब्द था! उन्हें मार भगाऊँगी, हाँ!!"
घर के बाक़ी सारे सदस्य मेरी नादानियों पे हँस लेते। और मेरी नाज़ुक सी काया को देख मेरा मज़ाक भी उड़ाते। वो बचपन में मेरी कोमल काया कुछ ज़्यादा ही पतली थी।बड़े होते होते मेरी कद काठी देख मुझें 'खंभा' कहकर ही पुकारते।और तो और अमिताभ बच्चन की वो लावारिस फ़िल्म का गाना - 'जिसकी बीवी लंबी उसका भी बड़ा नाम है - सीढ़ी का क्या काम है!!' तबसे मोहल्ले वालों की ज़ुबाँ पर गुड्डो नाम के आगे सीढ़ी भी लग चुका था। बहुत बुरा लगता था तब।
अरे, मैं फिर भटक गई। रेडियोग्राम से अलगाव बिल्कुल भी नापंसद था मुझें। दिन दुगनी रात चौगुनी मैं बढ़ती चली गई। मेरी कद काठी नहीं बाबा! मेरी उम्र। अब मैं नौ या दस साल की हो चुकी थी। रेडियो मेरा मानों जीवनसाथी ही बन चुका था। सोते जागते रेडियो मेरा चलता ही रहता। हेंडी तो था नहीं कि अपने साथ उसे भी यहाँ वहाँ उसे भी घुमाती रहतीं। और 1बीएचके के फ्लैट में हॉल में रखें उस रेडियो का वॉल्यूम उतना बड़ा रखतीं कि आसपड़ोस वाले आकर कम्पलेंट करते थकते नहीं थे।लेकिन करती भी तो क्या? किचन में माँ को हेल्प करनी हो। या चाची को उनके बैडरूम में हेल्प चाहिए हो तो सबको गुड्डो ही तो याद आती थी। फिर एक बेचारी नन्हीं सी कन्या किस किसकी मददगार बनती! आप ही न्याय करो अब!
फिर दूसरा प्रोग्राम आता था 'हवामहल' नाम का। 'हवामहल' नाटिकाओं और झलकियों का कार्यक्रम हुआ करता था। पहलेपहल वो रात सवा नौ बजे हुआ करता था।
फिर धीरे धीरे श्रोतागण की फरमाइशों पर उसका समय बदलकर रात के आठ बजे का हो गया।'हवामहल' कार्यक्रम के लिए कई तरह की झलकियांँ और नाटक देश भर से तैयार करके भेजे जाते थे। उस समय के फिल्मी कलाकार असरानी, ओम पुरी, अमरीश पुरी, और दीना पाठक जी जैसे कई नामी कलाकारों ने 'हवामहल' के नाटकों में अभिनय किया था। उसकी खास तरह की संकेत-ध्वनि मुझे तब भी मन को लुभाती थी। और मैं भी प्रेरित होती थी रेडियो पर नाटकीय अभिनय करनें के लिए।
फिर नया दौर आया। फिल्मी गानों के अंदाज़ बदलें। 80 का दशक आया।और पापा ने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी खरीदा। टेस्ट मैच देखने मे उनका शोरगुल इतना बढ़ जाता कि मुझें रेडियो कान सटाकर सुनना पड़ता।वैसे तो वो टीवी बैडरूम में ही था। और बैडरूम से हॉल तक का फांँसला न ज्यादा न कम, मध्यम सा था। इसलिए अगर रेडियो का वॉल्यूम बढ़ाने पर चाचू, भाभी, भैया और पापा जी को हर्षोल्लास की पलों को एन्जॉय करनें में दिक्कतें खड़ी होतीं।बहरहाल छोटों को ही तो सेक्रिफाइस करना पड़ता है। हमेंशा। मुझें भी करना पड़ता। और मेरा रेडियो मद्धम से धीरे धीरे मौन हो जाता। और मैं उसकी उदासी दूर करने में सफल न हो पाती।
और एक दिन,उस लकड़ी के डिब्बे में दीमक लग गया। मेरा प्यार दुलारा वो 'रेडियोग्राम' दीमकों के अधीनस्थ हो गया।उस दिन मैं बहुतायत रोई थी। सत्याग्रह पर ही उतर गई थी। गांधी जी की तरह, शायद से। (ऐसा माँ कहा करतीं थी)फिर घर में मेम्बर्स भी बढ़ते चले गए। सोने के लिए जगह कम पड़ने लगीं। और एक ज़माने में रेडियो में बज रहें गानों को सुनते सुनते पूरा परिवार उसके इर्दगिर्द बैठकर खाना खाते। शतरंज, रम्मी, चोपाट खेलना, करवा चौथ और वट सावित्री पूर्णिमा के 36 से 48 घंटों का जागरण भी वहीं पर होता था।
और, होली तथा शिवरात्रि की शामें रंगीन करने का कार्यक्रम भी उसी रेडियोग्राम के साथ मिलकर ही होता। शिवरात्रि वाला स्पेशयल प्रसाद पीकर चाचू का बहकना। और अनापशनाप इतना बड़बड़ाना, कि, पापा को हमें, मतलब हम लेडीज़ लोगों को बैडरूम में सुलाकर वे खुद अपने छोटे भाई एवं बड़े भाई के बेटों संग भांग का मज़ा लूटते आता।फिर अन्ताक्षरी की महफ़िल भी जमा होतीं।और होली के दौरान हास्य रसिक कवि सम्मेलनों को सुनना और तर्क लगाकर मैं ट्यून पर से ही गीत के बोल गुनगुना लेती। और हमेंशा मेरे कहे गए बोल सच्चे ही निकलतें।
पढ़ाई भी मेरी रेडियो की संगत में ही पूरी होती थी। फिर वो होमवर्क हो, या क्वेश्चन आनर्सस को 5 बार लिखने की पनिशमेंट हो। सब कुछ रेडियो को हज़ीरनाज़िर रखकर ही होता था।लेकिन, उसे दीमकों के आधीन करते वक्त अपना कोई क़रीबी जन्नतनशीं हुआ हो, ऐसा माहौल बनता चला गया।
और, मेरी घर में कम और मैदानी खेलों में रुचि ज्यादा ही बढ़ती चली गई।
जयमाला, हवामहल, बिनाका गीतमाला जैसे प्रोग्राम्स की जगह कबड्डी, आँखमिचौली और साइकलिंग की ओर बढ़ती चली गई।और मैं बड़ी हो गई।