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Anita Chandrakar

Children Stories

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Anita Chandrakar

Children Stories

मेला

मेला

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दीनू एक छोटे से गाँव में एक संयुक्त परिवार में रहता था, वह आठ नौ साल का बालक था। कार्तिक पूर्णिमा के दिन, हर दिन के विपरीत वह सुबह जल्दी उठकर नहा धो लिया और नये कपड़े पहनकर तैयार हो गया। दीनू बहुत खुश था ,आखिर वह दिन आ ही गया जिसका वह एक महीने पहले से इंतजार कर रहा था, आज दादाजी सभी बच्चों को पुन्नी मेला ले जाने वाले हैं। हर साल उनके दादाजी घर और आस पड़ोस के सभी बच्चों को बैलगाड़ी में बिठाकर , खारुन नदी के किनारे महादेव घाट में, कार्तिक पूर्णिमा के दिन लगने वाले मेले में ले जाते थे।

घर में चहल पहल शुरू हो गई थी। सुबह से ही दीनू की माँ रसोई घर में नाश्ता और खाना बनाने में लगी थी और उसकी दादी लिपाई पोताई चौक चंदन के काम में।महिलाएँ गली में अपने अपने घर के दरवाजे के सामने की जगह को गोबर से लीप रहे थे। गली में एक भी बच्चा नजर नहीं आ रहा था, सभी मेला जाने की तैयारी में लगे थे।

 प्रेमू काका दो चार पहले दिन ही बैलगाड़ी और बैलों को चकाचक तैयार कर कर लेते थे।उस दिन भी बैलगाड़ी पूरी तरह से सज धज गई थी। बैलों के सींग में नीले रंग के पेंट और गले में रंग बिरंगी गोटियों और घुँघरू वाले माला भी पहनाये जा चुके थे। दीनू की माँ , रास्ते में बच्चों के खाने के लिए पूड़ी सब्जी भी बना चुकी थी। प्रेमू काका गुनगुनाते गुनगुनाते बैलगाड़ी में दरी, चटाई, नाश्ता, पानी की बोतलें , पैरा, भूसा और कुछ जरूरत की चीजें रखते जा रहा था। दीनू का उत्साह बढ़ता ही जा रहा था, अब उससे वहाँ रुकना सहन नहीं हो पा रहा था। वह मेला जाने के लिए उतावला हो रहा था। उसने दादाजी से कहा " कब निकलेंगे दादाजी ,अब तो चलो, बहुत देर हो गई है, सभी लोग पहुँच चुके होंगे ।"

   दीनू की बढ़ती हुई अधीरता को देख ,थोड़ी ही देर में सब लोग बैलगाड़ी में बैठकर मेले के लिए रवाना हुए।गाँव की गली से होती हुई जब उनकी सजी धजी बैलगाड़ी जब निकली तब सफेद रंग के हष्ट पुष्ट बैलों पर सबकी नजरें टिक गई, ये देख दादाजी फूले नहीं समाये ।उन्हें अपने बैलों को देख बहुत खुशी होती थी। रास्ते भर बैलगाड़ी में मस्ती करते रहे, रास्ते में मिलने वाली हर एक चीज के बारें में वे बातचीत करते जा रहे थे। उनकी चर्चा में चिड़िया, सारस, बगुले, तितली, गिलहरी, कुत्ते, बिल्ली, पेड़ पौधे, नदी, तालाब, मछली, मेंढक, मंदिर , सूरज, चंदा , तारें और न जाने कितनी बातें शामिल थी। दादाजी के साथ बच्चे हमेशा खुश रहते थे।ऐसे ही हँसते गाते आखिर वे मेले में पहुँच ही गए।

       दूर से ही मेले की भीड़ दिखाई दे रही थी। चारों तरफ बैलगाड़ी और बड़ी संख्या में लोग दिखाई दे रहे थे, कहीं कहीं अन्य वाहनों की कतारें भी दिखाई दे रही थी। मंदिरों के घंटियों की आवाज कानों में सुनाई पड़ने लगी। 'हर हर महादेव' की गूँज दूर दूर तक सुनाई दे रही थी। एक खाली जगह देखकर प्रेमू काका बैलगाड़ी को रोके, फिर सभी लोग बैलगाड़ी से उतरे। पहले दोनों बैलों ,गंगू मंगू को एक छायादार पेड़ के तने में बाँधकर, खाने के लिए पैरा भूसा दिया गया। बच्चों के साथ साथ प्रेमू काका भी बहुत ख़ुश नज़र आ रहे थे, तभी तो हर काम जल्दी जल्दी हँसते गाते कर रहे थे। नीचे दरी बिछाकर सभी लोग कुछ देर विश्राम किये। उसके बाद दादाजी, सभी बच्चों के साथ मेला की ओर चले गए। खारुन नदी पर बने पुल में भी बहुत भीड़ थी, नदी में कई लोग स्नान कर रहे थे। वे लोग हाथ पैर धोकर मंदिर की तरफ गए। सभी मंदिरों में भक्तों की लंबी कतारें लगी थी इसलिए दादाजी बाहर से ही दर्शन करके आगे बढ़ गए। मेले में तरह तरह के बड़े बड़े झूले दूर से ही दिखाई दे रहे थे।एक तरफ मिठाइयों की दुकान सजी थी। खिलौने, सजावट के समान, मनियारी दुकान, जूते कपड़े , घर के उपयोगी सामान, खाने पीने की वस्तुएँ, सारी चीजें मेले की शोभा बढ़ा रही थी।

      दादाजी दीनू का हाथ पकड़े पकड़े चल रहे थे, क्योंकि दीनू सबसे छोटा था। बाकी बच्चे भी एक दूसरे का हाथ पकड़े पकड़े दादू के पीछे पीछे चल रहे थे। सबसे पीछे में प्रेमू काका चल रहे थे ताकि वे सभी बच्चों को देख सके। सबसे पहले दादाजी बच्चों के लिए ख़ूब सारा गन्ना लिए ,ताकि वापसी में बैलगाड़ी में बैठे बैठे बच्चे उसका आनंद ले सके और भूख लगने पर खा सके। मेले में सजी हुए दुकानें और सामान सबका ध्यान खींच रही थी।

सभी बच्चे खिलौने ,मिठाई ,और अपनी अपनी पसंद की चीजें खरीद रहे थे ,पर दीनू सिर्फ देखते जा रहा था। वह अभी तक कोई भी समान नहीं लिया था। दादाजी ने कहा ," बेटा तुम भी तो अब कुछ खरीद लो अपने लिए, देखो सभी बच्चे अपने लिए कुछ न कुछ ले लिए हैं।" जी दादाजी, जब मुझे अपनी पसंद की चीज मिलेगी तब मैं भी ले लूँगा ", दीनू ने कहा। दादाजी के साथ सभी बच्चे हँसते मुस्कुराते मेले का आनंद ले रहे थे। अचानक दीनू के कदम लोहे की दुकान के सामने रुक गए।अपना हाथ छुड़ाकर वह दुकानदार के पास जाकर मोल भाव करने लगा। दादाजी ने पीछे मुड़कर देखा ,   "दीनू बेटा इस लोहे की दुकान में तुम क्या कर रहे हो? आओ इधर आओ, अभी मेले में आगे भी तो जाना है ।" दादाजी ने कहा। 

   " थोड़ी देर रुको दादाजी , मैं अभी हँसिया लेकर आता हूँ ।" बेटा,अब तुम हँसिये का क्या करोगे ? हमारे घर में तो चार पाँच हँसिया पहले से ही है।" दादाजी ने आश्चर्य से पूछा। "हमारे घर की हँसिया एकदम पुरानी और टेढ़ी मेढ़ी हो गई है, सब्जी काटते समय माँ की उँगलियाँ कई बार उससे कट जाती है , मुझे माँ के लिए ये नया वाला हँसिया लेना है दादाजी। " 

दीनू की बात सुनकर बाकी बच्चे हँसने लगे। उसकी दीदी चिढाई, " हँसिया लेकर धान काटने जाना है क्या ? दीनू ने कोई जवाब नहीं दिया।

इतने छोटे से बच्चे के मुँह से ऐसी बात सुनकर दादाजी की आँखें नम हो गई। दीनू का अपनी माँ के प्रति परवाह, चिंता और प्यार देखकर दादाजी गदगद हो गए। दादाजी हँसिया लेकर दीनू को दिए और आगे बढ़ गए।

       हँसिया पाकर दीनू बहुत खुश था ,उसे ऐसा महसूस हो रहा था मानों वो 'ईदगाह' कहानी का जिम्मेदार बालक 'हामिद' हो।एक बार उसकी कक्षा में उनके गुरुजी, मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित कहानी 'ईदगाह ' बच्चों को सुनाये थे। इस कहानी को सुनकर दीनू की आँखें भर आई थी, उस नन्हें से बच्चे को उसी समय अपनी जिम्मेदारी का बोध हो गया था। उसके अंदर नैतिकता और कर्तव्य परायणता की नींव डल गई थी।उसने हामिद की तरह नेक बच्चा बनने का संकल्प ले लिया था। हँसिया खरीदकर माँ के प्रति अपना कर्तव्य निभाकर आज उसे असीम आनंद की अनुभूति हो रही थी, और दादाजी दीनू के शिक्षक को मन ही मन धन्यवाद दे रहे थे, क्योंकि बच्चों के भीतर नैतिक गुणों का विकास करने में शिक्षकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। शिक्षक बच्चों को अच्छा इंसान बनाने के लिए नैतिकता की बीज बोते हैं।

दादाजी भी बच्चों को रोज रात में कहानियाँ सुनाकर जीवन की शिक्षा देते थे।तभी तो सभी बच्चे दादाजी को खूब प्यार करते थे, उन्हें मान सम्मान देते थे और उनका कहना मानते थे। दादाजी अच्छी तरह से जानते थे कि

बच्चों को सुनाई जाने वाली ऐसी शिक्षाप्रद कहानियाँ केवल कहानियाँ ही नहीं होती, बल्कि ये बच्चों के मन में अमिट छाप छोड़कर उनका मार्ग प्रशस्त करती हैं ,और उन्हें अच्छा इंसान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


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