मैं गलत नहीं लिखती
मैं गलत नहीं लिखती
स्कूल का पहला दिन बहूत ही मनभावन होता है चाहे स्कूल कैसा भी हो पर होता है प्यारा। मेरे पापा सरकारी डॉक्टर थे। जब मेरे स्कूल जाने का समय आया तब उनका तबादला गाँव अर्थात ब्लॉक में था। स्कूल की कोई बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं थी पर पापा का कहना था स्कूल तो स्कूल है प्रारम्भिक शिक्षा कहीं भी हो सकती है। मुझे भी स्कूल जाने की उत्कट इच्छा थी। सभी बच्चजों को स्कूल जाते देखती तो पुलक उठती। मैं अपने बड़े भाई के साथ घर से थोड़ी दूर एक स्कूल में जाने को तैयार हुई। स्कूल घर से थोड़े ही दूर पर था। मेरे घर का रसोइया सायकिल पर बैठा कर हमदोनों भाई-बहन को स्कूल पहुँचा दिया।
मेरा प्रथम दिन या यूँ कहें उस सत्र का प्रथम दिन था अतः शिक्षिका ने बड़े प्यार से कहा सभी बच्चे अ, आ से लेकर ह तक अपने अपने स्लेट पर लिखो। मैं भी लिखी। लिखते लिखते मुझे नींद आने लगी। मैं किसी तरह 'ह' तक लिख कर स्लेट को किताब से ढक कर डेस्क पर सर रख कर सो गई। थोड़ी देर के बाद शिक्षिका के मांगने पर मेरे बगल में बैठी लडक़ी 'मोही' ने मेरे स्लेट को भी उन्हें दिखा दिया। कहीं गलती नहीं थी। शिक्षिका ने सही का चिन्ह लगा जर उसे कहा उसके डेस्क पर रख दो। थोड़ी देर में जब मेरी नींद खुली तो मैंने सही के निशान को देख पूछा किसने लगाया? मोही बड़े प्यार से बोली 'तुम सो गई थी अतः मैं तुम्हारा भी दिखा दी।'
मुझे बहुत गुस्सा आया और उसे डांटते हुए मैंने कहा -'मैं गलत नहीं लिखी हूँ। जो गलत लिखते हैं उन्हें चेक करवाना होता है ।'
वो मुझे समझाना चाह रही थी और मैं उस पर नाराज हो रही थी। अंत में शिक्षिका ने मुझे बुलाकर पहले समझाया जब मैं बहस करती रही तो उन्होंने हार कर पहले दिन ही मुझे डांट लगाई। फिर क्या था मैं घर आकर बोल दी अब स्कूल नहीं जाना है। कुछ दिन ऐसे ही चला फिर पापा बहुत समझाए तो फिर मैं स्कूल जाना शुरू की।
आज भी इस घटना को याद कर बचपन के पल में भ्रमण कर आनंदित हो जाती हूँ। सच बचपन हर पल से अनोखा होता है।
प्रियंका श्रीवास्तव 'शुभ्र'