लकीरें
लकीरें
वृंदा तू आज फिर लेट आई है, क्या बात है? जी मेम साब! कल से ऐसा नहीं होगा। अपनी बेटी मधु को घर के एक कोने में बिठाते हुए वृंदा ने मालकिन से कहा और तुरंत ही काम पर लग गई, अचानक दूसरे कमरे से बच्चों के खेलने की आवाजें आने लगी, तरह-तरह की बातें मधु के कानों पर पड़ने लगी। उसकी इच्छा तो हुई कि दौड़कर उनमें शामिल हो जाए लेकिन वृंदा की आंखों ने उसे रोक दिया। अपने बाल मन को मसोसती वह अपने हाथों को मलने लगी। घर पहुंचकर कानों पर पड़ी बातों से मधु के मन में जो सवाल उठे वह अपनी मां से एक-एक कर पूछने लगी। मां क्या सांताक्लॉज सिर्फ अमीर बच्चों के घर पर ही आते हैं? हम लोगों के घर नहीं आएंगे क्या? क्यों नहीं हमारे घर भी आएंगे। - वृंदा ने जवाब दिया। "यानी कल हम सबको पेट भर खाना मिलेगा न?" मधु मां के जवाब का इंतजार किए बिना ही अपने अगले सवाल की ओर बढ़ गई। माँ, सांताक्लॉज तो सबकी विश पूरी करते हैं तो क्या वे हमारे जीवन की विषमताओं की इतिश्री कर देंगे? वृंदा की मनःस्थिति अमावस्या की रात में जुगनू की रोशनी की तरह हो रही थी।
जवाब में मधु को अपनी मां के माथे पर बनी चिंता की लकीरें मिटती नज़र आ रही थी।
