कुछ कर्ज चुकाने बाकी हैं
कुछ कर्ज चुकाने बाकी हैं
लौट आया देहली पर आज
परिंदा जो विदेशी हो गया था पूछा कैसी गुजरी वहां क्या कभी अपने देश की याद आई नहीं? झूठी हंसी लिए चेहरे पर बोला बड़ी सड़कें बड़ी इमारतें वो शानो शौकत दिखता यहां कहां बड़े रेस्टोरेंट में विदेशी खानों का मजा मिलता यहां कहां कहते कहते थोड़ा रुका आंखों के कोर गीले होने लगे। मैंने पूछा क्या सचमुच तुम्हें अपनी मिट्टी अपने लोगों की याद आई नहीं? पूछते ही आंखों ने छोड़ा साथ जुबां का बोल पड़ा मन ऊबने लगता जब विदेशी व्यंजनों से मां के हाथों के खाने की याद आती है भूख न होने पर भी खिलाने का रोज नया बहाना मन को रुला जाता है दोस्तों संग मस्ती ठिठोली गम को खुशी में बदलने वाले मस्तानों की टोली भाई बहनों संग छत पर घंटों बतियाना खेत की मिट्टी की सोंधी खुशबू याद आती है भूली बिसरी वो बातों की गठरी यह सोच में लौट आया हूं तन्हा रह कर वहां बहुत रोया हूं हां सड़कें यहां नहीं बड़ी वो शानो शौकत दिखती नहीं सड़कों पर गड्ढे हैं गिरने का डर बना रहता है पर विश्वास है मन में पिता संभाल लेंगे दादाजी और पिताजी मिट्टी की इस सुगंध के कायल हैं आज मुझे भी उसी मिट्टी ने पुकारा है देहली पर देखो लौट आया हूं लम्हे जो शेष हैं जीवन के अपनों संग गुजारने बाकी हैं कुछ फर्ज निभाने बाकी है कुछ कर्ज चुकाने बाकी है।