कुछ ख़्वाब ऐसे ही....
कुछ ख़्वाब ऐसे ही....
आज किसी किताब के पन्नें पलटते हुए मेरी निगाहें अटक सी गयी।क़िताब के एक सफ़े में कुछ जानी पहचानी पंक्तियाँ दिखी।जरा ध्यान से देखा तो लगा, "अरे,यह तो मेरी लिखी हुयी पंक्तियाँ है।"वह कविता मैंने एक लड़की के ख़्वाबों का ज़िक्र करते हुए लिखा था।
मेरी वह कविता बहुत पुरानी थी।उस कविता में मेरे लेखन का नयापन और सादगी दोनो ही नुमायां हो रहे थे।
बहुत सादे अल्फ़ाज़ों से मैंने वह कविता लिखी थी।मैंने अपनी पुरानी कविता को पढ़ना शुरू किया। न जाने क्यों मुझे लगा कि वह लड़की कोई और नही बल्कि मैं हूँ।मेरे ही आसमाँ में उड़ने की चाहतों का ज़िक्र हो रहा था। उस वक़्त की मेरे मन की उलझने और वह सारी अनकही बातें थी।
आज तक मैंने कितनी सारी कविताएँ लिखी है...ढेर सारी कविताएँ...कुछ कविताएँ मेरे आसमाँ में उड़ने की चाहतों पर थी।कुछ में चाँद को छूने की बातें थी।कुछ कविताओं में रंगबिरंगी तितलियों की बातें थी।लेकिन आज जैसे उन सब कविताओं की बातें याद करते हुए मैं हँस पड़ी। यह हँसी कितनी सारी बातों को झुठला रही थी। क्योंकि आज मैं जान चुकी हुँ की आसमाँ की चाहत और चाँद को छूनेवाली हसरतें बस हसरतें रह जाती है।हक़ीक़त में कहाँ यह सब होता है भला?और अगर कोई लड़की चाँद को छूना चाहे तो न जाने कितने सारे अनदेखे बंधन जो उसकी उड़ान को क़ाबू करते है। अगर वह फिर भी उन ख़्वाबों को चेस करे तो घर से कहा जाता है, "क्या कमी है तुम्हे इस घर मे? मैं हूँ न कमा कर लाने वाला। तुम बस घर परिवार को संभालों और मज़े करो।"यह बात कितनी आसानी से कही जाती है...
अचानक घर की डोरबेल बजी। कौन आया है कहते हुए मैंने क़िताब को बंद किया और उठकर दरवाज़ा खोलने गयी। शाम हुयी थी और मुझे अंदाज़ा भी नही हुआ था।सामने इनके साथ कोई कलीग आये थे।मुस्कुराते हुए मैं उनको ड्रॉइंग रूम में बिठाकर उनकी आवभगत में लग गयी....शाम की हवा चलने लगी थी और उधर क़िताब के पन्नें फड़फड़ा रहे थे....
