कर्म और धर्म
कर्म और धर्म
समुद्र की इठलाती मचलती लहरें वेग से आतीं और तट की चट्टानों से टकरा कर लौट जातीं। पल दो पल बाद फिर वही क्रम जारी रहता। पडिवा से पूनम तक यह लहरें ज़ोर ज़ोर से हिलोरें मारकर आतीं और फिर वापिस चली जातीं।
एक दिन लहर इतरा कर चट्टान से बोली-"मैं अपनी आदत से मजबूर हूं। वेग से उफनती हुई आती हूं, तुम्हें भिगोती हूं, फिर दूर चली जाती हूं, लेकिन तुम हो कि हिलते ही नहीं, जस के तस डटे रहते हो।"
चट्टान ने हँस कर कहा-"मैं तुम्हारे वेग को सहन कर भी अटल हूं। एक तुम हो कि रात दिन मचलती रहती हो, फिर भी नहीं थकती, कभी तो आराम कर लिया करो।"
लहर बोली मचल कर -"टकराना मेरा कर्म है।"
गर्व से चट्टान में से आवाज़ आई-
"अडिग बने रहना मेरा धर्म है।"
