कॉमिक्स की दुकान

कॉमिक्स की दुकान

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गर्मी की छुट्टियाँ फिर आ गई है। हर साल जून के महीने में आती हैं। बच्चे हर बार की तरह तेज गर्मी से बचते बचाते घरों में दुबक जाते हैं। खेलने के लिए सुबह और शाम मुश्किल से बचते हैं, मुश्किल होता है दोपहर काटना। मैं हर साल अपने बचपन के दिनों को याद करता हूँ, इन गर्मियों की छुट्टियों में। मुझे लूडो खेलते, कॉमिक्स पढ़ते, कैरम बोर्ड और शतरंज खेलते दोपहर का वक्त याद आता है। कभी मैं अपने पड़ोसी दोस्त के घर जाता और कभी वो मेरे घर आता। हम दो तीन दोस्त इस तरह अपना समय बिताते। सबसे मजेदार चीज थी कॉमिक्स पढ़ना। हम अपने सलेब्स में हिंदी अंग्रेजी की कहानियां तो पहले ही पढ़ डालते पर कॉमिक्स का जो मजा था, उसकी बात ही अलग थी। घर के पास वाले बाजार में मनोज की दुकान थी।

कॉमिक्स का खजाना थी यह दुकान। मनोज दुकान में काउंटर के पीछे खड़ा होता और उसके दांये बांये बनी अलमारियों में कॉमिक्स के ढेर पड़े रहते। नई आई कॉमिक्स को वो अपनी दुकान के दरवाजे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक रस्सी बांधकर लटका देता।

चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, नागराज, ध्रुव, राम-रहीम, महाबली शाका, फौलादी सिंह, चन्नी चाची, चन्दा-मामा, नन्दन, चम्पक और कितने नाम गिनाऊँ। सब कॉमिक्स एक से एक थीं।

उन दिनों कॉमिक्स के पतले अंक के साथ साथ मोटा अंक भी आना शुरू हो गया था। हिंदी अंग्रेजी में कॉमिक्स आती थी पर हमारे बीच हिंदी की कॉमिक्स ही लोक प्रिय थी। मनोज की दुकान पर छुट्टियों में अक्सर भीड़ रहती। कॉमिक्स खरीदने का क्रेज ज्यादा नहीं था, मनोज किराये पर दिया करता। पचास पैसे से लेकर दो रुपये प्रति दिन किराया होता। यूं कॉमिक्स पांच से दस रुपये में खरीदी भी जा सकती थी पर हम सभी दोस्त सोचा करते कि कॉमिक्स किराये पर लेकर पढ़ेंगे। हम सब छुट्टियों में दस दस रुपये कॉमिक्स के लिए बचाया करते जो कॉमिक्स मैं किराये पर लाता, हम तीनों उसे बारी बारी दो तीन घण्टे में पढ़ डालते। इस तरह जो कॉमिक्स हम में से एक किराये पर लेता, वो तीनों के काम आती। ऐसे हम बहुत सी कॉमिक्स पढ़ने का आनन्द उठा लेते। पढ़ने का क्रेज ऐसा कि समय और खाने पीने का कोई ध्यान न रहता। घरवाले आवाजें देकर थक जाते कि 'खाना खा लो, चाय पी लो' पर सब व्यर्थ। कॉमिक्स जहां खत्म होती कई बार वहां लिखा होता 'आगे क्या होगा ?जानने के लिए अगले अंक में पढ़ें' इस प्रकार हमें नया अंक पढ़ने की ललक लगी रहती।

हम मनोज के पक्के ग्राहक थे, इसलिए वो कभी कभार हमसे उधार भी कर लेता। दसवीं कक्षा के बाद मनोज का पढ़ाई में मन नहीं लगा, टी उसके पिता जी ने उसे ये दुकान खुलवा दी थी। हम सोचते कि मनोज की तो बड़ी मौज है, इतनी सारी कॉमिक्स के बीच रहता है सारा दिन। उसका जब मन करता होगा, कॉमिक्स पढ़ लेता होगा। कमाई भी मजा भी। काश हमारे पास भी मनोज की तरह इत्ती सारी कॉमिक्स हों। खैर किराये पर मिल रही थीं, यही गनीमत थी। मुझे लगता है कि जो चीजें हमें किफायत से मिलती हैं, उन्हें पाने का सुख उतना ही ज्यादा होता है।

वैसे हम तीनों में से जब भी कोई किसी रिश्तेदार के घर ट्रैन से जाता तो हमारी सबसे पहले यही योजना होती कि किस स्टेशन पर बनी किताबों की दुकान से कौन सी कॉमिक्स खरीदनी है। कॉमिक्स खरीदकर दिलवाने में माँ बाप कभी इनकार न करते। शायद ये भी एक बड़ा कारण था कि हम बच्चे किताबों से जुड़े हुए थे। उन दिनों आजकल की तरह मोबाइल गेम्स, लैपटॉप, वीडियो गेम्स और चौबीस घण्टे टी वी पर चलने वाले कार्टून नही थे। बस इतवार की सुबह टीवी पर बच्चो के लिए 'ही मैन', रामायण और फिर महाभारत या चन्द्रकान्ता आया करता, शाम को फ़िल्म। कई बार बिजली न होती तो कॉमिक्स या लूडो ही सहारा बनते समय बिताने के लिए। चाचा जी, बुआ, मासी या चाची हमारे साथ कभी कभार लूडो खेला करते, अंताक्षरी भी खेलते।

समय बिताने के लिए करना है कुछ काम, शुरू करो अंताक्षरी लेकर हरि का नाम।'

खैर मनोज की दुकान हमारी जिंदगी का बड़ा हिस्सा रही। दसवीं कक्षा के बाद पढ़ाई और होस्टल के चक्कर मे ऐसे उलझे कि सब पीछे छूट गया। पढ़ाई पूरी हुई तो नौकरी शुरू हो गई और फिर शादी, सेविंग और बच्चों की गृहस्थी।

अब जमाना बदल गया है। बच्चे छुट्टियों में सारा दिन चलने वाले टीवी कार्टून, मोबाइल गेम्स और वीडियो गेम्स के बीच अपना समय बिता रहे हैं।

पिछले साल जब गर्मी की छुट्टियां हुई तो अपने शहर अपने घर लौटा। बैठे बैठे सोचा कि क्यो न बच्चों को कॉमिक्स पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाए। अपनी अलमारी में से ढूंढने की कोशिश की तो दो कॉमिक्स मिल गई। बच्चो को दी तो पहले उन्होंने ना नुकर की, पर फिर जैसे उन्हें अच्छी लगीं और वे पढ़कर और मांगने लगे।

"क्या अब भी शहर में मनोज की कॉमिक्स की दुकान होगी ?",

"क्या मनोज अब भी कॉमिक्स का काम करता होगा ?"

सोचकर शहर के पुराने बाजार में जाने का मन बनाया। बच्चों को साथ लिया और मनोज की दुकान पर पहुंचा पर ये क्या, अब वहां शीशे लगी कम्प्यूटर हार्डवेयर की दुकान थी।

'कॉमिक्स की दुकान कहाँ गई ? मनोज कहाँ गया ?' ये प्रश्न मेरे मन में घूमने लगा।

मनोज के साथ वाली भल्लू हलवाई की दुकान अब भी वहीं थी। इस दुकान के स्वादिष्ट खस्ता कचौरी कितनी बार खाये थे। भल्लू हलवाई बूढ़ी हालत में दुकान के भीतर एक कुर्सी पर बैठ था। उनसे मनोज के बारे में पूछा टी कहने लगे,

"अरे बेटा, जमाना बदल गया तो कारोबार और धंधा भी बदल गया। खोये की बर्फी के साथ अब चॉकलेट बर्फी भी बनानी पड़ती है। मनोज का तो ऐसा है कि ये दुकान किराये पर थी। जब टीवी और कम्प्यूटर का जमाना छाने लगा तो कॉमिक्स कौन पढ़ता। मनोज का धंधा मंदा पड़ गया था। अब तो वो कॉलेज के पास एक दुकान में फोटो स्टेट का काम करता है, वहीं चले जाओ।"

मैंने बच्चों के साथ भल्लू के समोसा कचौरी खाये और कॉलेज की तरफ मनोज की दुकान पर चला गया।

मनोज ने शायद मुझे पहचाना नहीं था पर मैं उसे देखते ही पहचान गया। वही बात करने का अंदाज, सांवला रंग, माथे पर तिलक और कमीज पायजामा पहने वह अपने काम में व्यस्त था।

'मनोज भाई, पहचाना, बचपन में आपसे कॉमिक्स लेकर पढ़ा करते थे हम सब दोस्त।'

मनोज ने चेहरे की तरफ देखा और मुस्कराते हुए बोला, "अरे,आइये राजन बाबू, बड़े दिनों बाद मिले, कहाँ हैं आजकल ?"

"अरे भाई, जहां रोजगार ले जाये, वहीं जाना पड़ता है,खैर और सुनाओं, कॉमिक्स वगैरह कहाँ गई सब ?"

"ऐसा है अब कॉमिक्स कोई बच्चा पड़ता है कहा हैं, कहीं कहीं मिलती है तो बहुत महंगी है, जिसे खरीदना ही वो खरीद कर पढ़ लेता है, रेलवे स्टेशन पर मिल जाती है कहीं कहीं। इस शहर में तो कोई पढ़ता नहीं, अब किराये पर भी कोई नहीं ले जाता। शुरु शुरु में जब धंधा मन्दा हुआ तो मैंने बहुत सी कॉमिक्स आने पौने दाम में बेच दीं। फोटी स्टेट की दुकान कर ली, कुछ कॉमिक्स बची हैं, वो पीछे अलमारी में पड़ी हैं।'

मनोज की बात सुनकर मेरी आँखिन में चमक आ गई।

"मनोज भाई अगर हम चाहे तो बच्चे अब भी पढ़ सकते हैं, खैर मैं चाहूंगा कि तुम मुझे वो सारी कॉमिक्स दे दो, मैं उसे खरीदने को तैयार हूं, मुझे खुशी होगी यदि मेरे बच्चे उन्हें पढ़ सकें।'

मनोज मेरी बात सुनकर खुश हो गया और उसने अपने बेटे को कहकर अलमारी से पुरानी कॉमिक्स निकलवा लीं।

मुझे कॉमिक्स देखकर लगा जैसे कोई खजाना मिल गया हो। मनोज ने चाय भी मंगवा ली। हम कितनी देर तक ढेरों बाते करते रहे। मनोज ने कॉमिक्स के पैसे लेने से इनकार किया पर मैंने उसे पैसे दे ही दिए।

"मनोज भाई, मैं अपने पुराने दोस्तों से भी कहूंगा और हम कोशिश करेंगें की कम से कम अपने बच्चों में पढ़ने की आदत बनाये रखे। आप के लिए बहुत सी दुआएँ। आपकी कॉमिक्स की दुकान मेरे दिल मे हमेशा जिंदा रहेगी।' मैंने कहकर विदा ली।

आप सच मानिए कॉमिक्स पढ़ते हुए वे मोबाइल और कार्टून देखना बिल्कुल भूल गए और मेरे बच्चों को कॉमिक्स पढ़ता देख मुझे जो सुकून मिला वो अनमोल है।


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