कल्पना

कल्पना

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जंगल में शिकार के लिये गये राजा ने एक सरोवर के किनारे कुटिया देखी तो उत्सुकतावश वह कुटिया में चला गया।

वहाँ एक सुदर्शन युवक बड़ी तन्मयता से एक मूर्ति गढ़ रहा था। राजा ने देखा कि वहाँ रखी सभी मूर्तियाँ प्रेमी जोड़ों की थीं।

तभी उसकी नज़र कोने में रखी मूर्ति पर पड़ी। उस पर सुंदर झीना आवरण पड़ा था जिसमें से सुंदर स्त्री का मनमोहक सौंदर्य झाँक रहा था।


"मूर्तिकार, तुम्हारी बनायीं सभी मूर्तियाँ जोड़ियों में हैं पर वह कोने में रखी अकेली क्यों?"

"महाराज, वह मूर्ति मेरी वर्षों की कल्पना थी, जिसे मैंने बड़े मनोयोग से साकार करके सँवारा है। अब जो मूर्ति गढ़ रहा हूँ, वह इसकी जोड़ी बनेगी।" कहते कहते मूर्तिकार ने उस सुंदर मूर्ति के ऊपर से झीना आवरण हटा किया।

राजा मूर्ति का अनुपम सौंदर्य देख कर मंत्रमुग्ध रह गया। उसने उस मूर्ति की ओर देखा जो गढ़ी जा रही थी। ध्यान से देखने पर पता लगा, वह हूबहू उस मूर्तिकार की ही प्रतिमूर्ति थी।


राजा ने एक ही पल में अपनी तलवार से मूर्तिकार की मूर्ति का सिर धड़ से अलग कर दिया।

मूर्तिकार हैरान रह गया।

राजा बोला, "आज से यह मेरी कल्पना बनेगी। तुम्हें कोई अधिकार नहीं मेरी कल्पना के साथ अपनी मूर्ति लगाओ।"

कहकर राजा कुटिया से बाहर निकल गया।


मूर्तिकार कटे हुए सिर को अपने हाथों में लिये अश्रुपूर्ण नज़रों से देखने लगा। उसने कल्पना में अपना शीश देखा और बुदबुदाया, "राजा की मेहरबानी कि मेरे हाथ में मेरा शीश नहीं।"


उद्देश्य- निरंकुश राजा, बेबस प्रजा


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