Kalyani Nanda

Children Stories Drama

4.6  

Kalyani Nanda

Children Stories Drama

किताब की दास्तान

किताब की दास्तान

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मारे शहर में बहुत पुराना एक लाइब्रेरी है । बहुत ज्यादा बडा तो नहीं, लेकिन किताबें बहुत है । बहुत महान साहित्यकार के रचित महान कृतियाँ वहाँ संरक्षित है । इसीलिए मैं हर शनिवार और रविवार को वहाँ जाता हूँ क्यों कि उस दो दिन ही लाइब्रेरी खुला रहता । ज्यादातर किताबें हिन्दी और अंग्रेजी के हैं । दूसरी भाषाओं के भी किताब है । मुझे बचपन से किताब पढने का शौक था । यह शौक मुझे मेरे दादा जी से मिला था । दादा जी के पास बहुत सारी किताबें थी । उनके जाने के बाद मैं ने वे सारी किताबें संभाल कर रखा था । मेरे घर में एक छोटे से कमरे को एक मिनी लाइब्रेरी बना दिया था । नौकरी से अवसर लेने के बाद मेरे ज्यादातर समय वहीं व्यतीत करता था। बच्चे बडे हो गये। सब अपने अपने घर संसार में व्यस्त । मेरी पत्नी भी पोते पोतियों के साथ बिताती थी । मैं बहुत अकेला महसूस करता था । ये किताबें ही मेरे अकेलेपन के सबसे बडे साथी थे ।

आज लाइब्रेरी में ज्यादा लोग नहीं थे । वैसे भी आजकल के नौजवान बहुत कम किताब पढने में रूची रखते हैं । इन्टरनेट का जमाना है । इक्कीसवीं सदी के बच्चे हैं , सब कुछ नेट में ही खोज निकालते हैं । लेकिन उनको किताब पढने जो मजा है , कहाँ पता है । मैं एक , दो किताब इसू कराके एक कोने में बैठ कर पढना शुरू किया । कुछ देर बाद मुझे लगा कि , किसीने कुछ कहा। चारों तरफ देखा, सब अपनी पढाई में लीन थे । मैं फिर पढने लगा । फिर किसीने कुछ कहा । मुझे लगा कोई मुझे पुकार रहा है , लेकिन कौन? ध्यान से इधर उधर देखने लगा।तभी फिर सुनाई दिया, " इधर ऊपर देखो, मुझे भी अपने पास रखो और पढो । आज महान साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी के ध्रुव स्वामिनी पढ रहे हो ? उनकी महान रचना कामायनी पढना शुरू करो ।" मैं आश्चर्य हो कर ऊपर की तरफ नजर उठा कर देखा एक किताब सेल्फ में टेढी होकर रह गयी थी । मैं ने जाकर उसे ले आया । वह किताब थी कामायनी । मेरे तो आश्चर्य का ठिकाना ना रहा । सच में ऐसा हो सकता है ? किताब बोल सकती है ? मैं ने वो किताब अपने पास लाकर टेबुल पर रख दिया और उस किताब को देखा, किताब बहुत पुरानी लग रही थी, धूल भी थी । शायद बहुत दिनो से वैसे ही अपनी जगह पर थी । वह किताब फिर बोलने लगी, " क्या सोच रहे हो ? मैं इतनी मैली क्यों दिख रही हूँ ? आजकल कौन हमें पढता है ।कुछ तुम्हारे जैसे को छोडकर । ऐसे ही अकेले पडे रहते हैं । एक दिन ऐसा था कि हम जैसी किताब साहित्य जगत में तहलका मचा देते थे । साहित्य जगत में एक क्रांति ले आते थे । कितना सम्मान, आदर मिलता था । अब और कहां मिलता है वो सब, समय का फेरबदल है । अब हमारे समय की किताबें बहुत ही अकेलापन महसूस करते हैं । तन्हाई में दिन गुजर जाते हैं ।" लेकिन तुम पढो मेरे समय की वो सारी किताबें । तुम्हारे जैसे कुछ लोग हैं जिनको हमारी कदर है ।" किताब ने दर्द भरी एक लंबी सांस ली । " अरे, तुम पढते पढते आज यहीं पढने के कमरे में सो गये ?उठो शाम होने वाली है , आज लाईब्रेरी नहीं जाओगे ? हरीश बाबू ने फोन करके पूछ रहे थे । " पत्नी सुरमा की आवाज से मेरी नींद टूट गयी । पहले मुझे कुछ समझ में नहीं आया , फिर थोडी देर के वाद मैं जान गया कि , मैं ने अपने पढाई के कमरे में कामायनी की किताब पढते पढते सो गया था । तो क्या मैं स्वप्न देख रहा था ? वो किताब की बातें सब नींद में सुन रहा था । शायद....! ! मैं ने चाय पीते हुए स्वप्न में किताब से हुई बातों पर सोचने लगा । सच में अगर किताबें सजीव होते तो ऐसे ही तन्हाई का एहसास बयाँ कर पाते ।



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