खरगोश मेरा दोस्त
खरगोश मेरा दोस्त
डोर बेल बजी थी, रोहित ने अखबार पढ़ते हुए इस उम्मीद में शैली की ओर नजर डाली कि वो उठ कर देख ले, पर वो निर्विकार भाव से सोफे ओर बैठी चाय के घूंट भरती रही मानो कह रही हो, मैं ही क्यों उठूं?,
तुम भी तो देख सकते हो, और उसके इस बर्ताव से मन ही मन झल्लाते हुए रोहित उठने का उपक्रम कर ही रहा था कि पलाश दौड़ता हुआ आ गया।और तभी उसकी चहकती हुई आवाज़ सुनाई दी "दादी, बाबा!!! " उत्साह उसकी आवाज़ में साफ साफ सुनाई पड़ रहा था।
इस बार चौंकने की बारी रोहित और शैली की थी। "अरे! माँ, पापा, आप? अचानक?"
"सरप्राइज!" मां ने हंसते और चहकते हुए कहा।
थोड़ी ही देर में घर का माहौल बदल चुका था। पलाश की हंसी और उत्साह का तो कोई ठिकाना ही नही था।रूटीन में बंधा , उबाऊ सा घर चहल पहल से आनंदित हो चुका था। रोज ही कुछ नया बनता, ऑफिस से आ कर शैली, रोहित और स्कूल से आकरपलाश, खाली न बैठे रहते। बस्ता पटक पलाश कभी दादी तो कभी बाबा के गले मे बाहें डाल कर झूल जाता।दादी गर्म खाना देती।
ऐसे में ही एक दिन मां ने रोहित से कहा, "रोहित पलाश बहुत अकेला है, अब उसका भी कोई भाई या बहन आना चाहिए।"
5 वर्षीय पलाश ताली बजाते हुए कूदने लगा, "हुर्रे मैं भी तो मम्मी से बहन ही मांगता हूं, पर मम्मी डांट देती है।"
और रोहित! फौरन बोला , "कैसी बातें करती हो मां? आजकल के जमाने मे कोई दो बच्चे करता है भला? "
"एक ही पालना मुश्किल है।" इस बार शैली ने भी रोहित की हां में हां मिलाई।अचानक शैली की नज़र पलाश के उतरे हुए मुँह पर पड़ी।तरस आया उसे पलाश पर , पर दोनो ही एक बच्चे के अपने निर्णय पर अडिग थे। अगले दिन मां पापा लखनऊ वापस चले गए।पलाश खूब रोया, ये देख जाते जाते दादी बाबा भी रो दिए।उसके सर पर हाथ फेरा गले लगाया और भारी मन से विदा ली।घर फिर यंत्रवत चलने लगा।
शैली की आंखों से इस बार पलाश का उतरा हुआ चेहरा न जा रहा था। इसी उलझन में वो एक दिन अपनी बाल सखा दीप्ति के यहां पहुंची। दीप्ति उसे देख खुशी से चहकी, "अरे तू! ये शाम को सूरज मेरे घर?" और दोनो हंस दी।
चाय पीते हुए, उसने अपनी समस्या दीप्ति को बताई, दीप्ति के भी एक ही बेटी थी। पर शैली की समस्या पर वो हंस दी, अरे बस, इतनी छोटी सी बात।
"ठहर मैं अभी लाती हूँ तेरी समस्या का हल.पलाश अभी बहुत छोटा है, उसे दोस्तों के अलावा भी घर पर एक कंपनी चाहिए ही जब तक वो थोड़ा बड़ा नही हो जाता। "
दीप्ति जब लौटी तो उसके हाथों में दो नन्हे खरगोश थे एक सफेद और एक चितकबरा । बहुत प्यारे, "ले ये पलाश के लिए मौसी की गिफ्ट।"
तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी, "मम्मी आप कहाँ हैं?" ये पलाश था
"आती हूँ बच्चे, फिर हम लोग पार्टी करते है" हंसते हुए उसने कहा। और दीप्ति के गले लग उसे धन्यवाद दे घर चल पड़ी शैली।
घंटी की आवाज सुन पलाश ने ही दरवाजा खोला? "आप कहाँ चली गई थी? और दोनो हाथ पीछे देख पूछा , आपके हाथों में क्या है?"
"तेरी गिफ्ट", शैली ने हंसते हुए कहा और दोनो खरगोश पलाश के हाथों में पकड़ा दिए। "लो दो दो दोस्त----"
और पलाश खुशी से उन नर्म गुदगुदे दोस्तों को पाकर समझ नही पा रहा था कि अपनी खुशी कैसे बताए?
"क्या नाम रखेगा?"
" एक का चुनमुन, और दूसरे का क्या रखूं मम्मी? "
"दूसरे का पलाश रख देते हैं"
," धत!" हंसते हुए बोला पलाश।"दूसरे का गुदगुदी रखता हूँ", और समवेत हंसी।
तब से दो वर्ष बीत चुके, रोहित और शैली जब भी घर लौटते उन्हें पलाश खुश मिलता, उसके पास ढेरों किस्से होते चुनमुन, और गुदगुदी के, इसने आज ये किया, वो मेरी गोद मे कूद गया, दोनो मेरे साथ सो गए आदि आदि।और उल्लासमय वातावरण हो चुका था उस घर का खरगोशों के कारण।