ख़ामोशी
ख़ामोशी
अंदर-अंदर से टूट जाता हूँ जब अकेला होता हूँ, मैं ख़ुद को भी सम्भाले नहीं संभलता हूँ आँखों से बहते आँसू और ज़िन्दगी से ख़ुद-ब-ख़ुद कभी-कभी सवाल करता हूँ,
एक दर्द जो हर बार होता है, अपने ज़ेहन में बिखरें सपने मेरे ख़्वाबों से जैसे अंदर-ही-अंदर टूट से चुकें हैं, अंदर-ही -अंदर ख़ुद से जलना कभी गुस्से में अपना मुँह ख़ुद बनाना बहुत ज़्यादा रोना जब ख़ुद अकेले होना होता हैं, वो दिन वो पल जैसे घड़ी के काँटों की तरह टूट सा गया
कुछ छूट सा गया हैं, उन यादों को उन बातों को सबके सुनें किस्सों को छोटे-छोटे मासूम से बच्चों से गिरना उठना बैठना रोना सम्भलना ख़ामोश रहकर फ़िर ख़ुद से बात करना, वो समय वो पल वो पुराने दिन वो बीते हुए कल जैसे कुछ अधूरा बन्धन दोस्त साथी कोई अपना छूट सा गया हैं जैसे हर वक्त बिखरें काँच के टुकड़ों के जैसे अधूरा अंदर-ही-अंदर टूट सा गया हैं, वो पल की कुछ यादें आज भी मेरे ज़ेहन में हैं किसी का मेरा सामने होकर भी न रहना बस गुज़रते हुए पीछे की और चलें जाना कभी होकर भी न होना जैसे कुछ पल के लिए रुला सा गया हो,
शायद कुछ अधूरा जो मेरी उसकी ख़ामोशी में छुपा हैं
ख़ामोशी कह नहीं सकती बस ख़ामोश हो जाती हैं कुछ पल के लिए ख़ामोशी भी एक दिन ख़ुद टूट पड़ती हैं।।
