कहां गए वो दिन
कहां गए वो दिन
कभी बड़ों के लिए सर्दियों की गुनगुनी धूप में छत पर बैठकर गपशप करना किसी गोलमेज सम्मेलन से काम नहीं था और बच्चों के लिए तो आसपास की खाली जमीन क्रिकेट के मक्का लॉर्ड्स के मैदान से कम नहीं थी, क्योंकि उस दौर में भारत वर्ल्ड चैंपियन था और कपिल देव का जादू सर चढ़कर बोलता था। गली मोहल्ले में फेरी वालों का आना-जाना जो सुकून देता था वह अब मॉल में कहां। बड़ों की वीटो पावर के बावजूद बच्चों की धमाचौकड़ी थमने का नाम नहीं लेती थी। दुनिया घूमने के चक्कर में हाथ पर लट्टू को नचाना। खो-खो, लूडो कैरम के बीच पतंगों के पेंच लड़ाने की बात हो या कंचे खेलने की, संडे को रामायण महाभारत के बाद दूरदर्शन पर शाम की फिल्म के इंतजार में दिन भर फुल एंजॉय के बाद छत पर लगे टीवी एंटीना को सही डायरेक्शन में घुमाना मतलब एवरेस्ट फतह। जो मजा इकट्ठे बैठकर चित्रहार देखने का होता था वह अब एकांत में मोबाइल पर अपनी पसंद के गाने देखने-सुनने में कहां। चुनावी मतगणना के परिणामों से ज्यादा उस समय अंतराल में आने वाली फिल्मों का क्रेज ऐसा था कि जीतने वाले का नाम याद रहे ना रहे लेकिन फिल्मों के नाम और समय बच्चे-बच्चे को याद रहता था। वो एक ऐसा दौर था जिसमें सब अपने से लगते थे, चालाकियां कम और प्यार ज्यादा था। भले ही डिजिटल होती दुनिया मुट्ठी में समा गई हो, लेकिन वह स्वर्णिम समय हाथ से फिसल गया और ले गया अपने साथ वह प्यारा सा और खुशनुमा वातावरण। जाने कहां गए वो दिन।