खामोश दीवारे

खामोश दीवारे

1 min
334


कभी बचपन में सुना करते थे की दीवारों के भी कान होते है।उस समय यह सोच कर बड़ा ही मजेदार लगता था कि किसने भला दीवारों के कान देखे और यह मुहावरा बना दिया?


लेकिन बड़े होकर फिर रिश्तों को समझना शुरू हुआ और रिश्तों की उलझनों को भी।तब महसूस हुआ की दीवारों के कान ही नही होते है बल्कि वे हमारी बाते पूरी तसल्ली से सुनती भी है और तन्हाई में हमारा पूरा साथ देती देती है।तो कभी कभी साथ में सुबकती भी है।


क्योंकि कहा जाता है कि दीवारों के सिर्फ कान होते है उनके मुॅंह नहीं होते है तो वे हमारे हर एक दर्द को अपने खुद के दर्द के साथ महफूज करके रख लेती है।इसलिए दीवारों का दर्द भी बढ़ जाता है क्योंकि दीवारों के तो बस कान ही होते है।


लेकिन दीवारों के बारे में या उनके दर्द के बारे में कोई क्यों सोचे? वे तो बस दीवारें है।चाहे यहाँ रहे या वहाँ।किसी को क्या फर्क पड़ता है?


दीवारों का क्या?

वे तो बेजान है...

बेबस है...

खामोश है...

खड़ी रहती है इन्तजार में...

अपनी ख़ामोशी के टूटने के...


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract