निशा शर्मा

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काशी...एक प्रेम ग्रंथ!

काशी...एक प्रेम ग्रंथ!

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हाँ तो साहिबान,मेहरबान और कद्रदान! अरे हमारा मतलब है कि हमारे शहर में आये हुए हमारे सभी प्यारे मेहमान! आपका स्वागत करता है ये आपका अपना प्यारा राधे,गाइड! आज हम आपको दिखायेंगे, सुनायेंगे और आप सबको घुमायेंगे अपना प्यारा शहर, हिन्दुस्तान की आन-बान और शान...वाराणसी!

वाराणसी... मन्दिरों का शहर,भारत की धार्मिक राजधानी,भोलेबाबा की नगरी और हाँ इसे दीपों का शहर भी कहा जाता है।

"तो हम शुरू करेंगे आज अपना सफ़र वाराणसी के घाटों की खूबसूरती को अपनी आँखों के कैमरों में कैद करने से और हाँ जो बाबू , मैडम,चाचा,बउआ या बहिन जी चाहें वो इन्हें अपने गलों में लटके ये भारीभरकम,बढिया-बढ़िया कैमरों में भी कैद कर सकते हैं", राधे की इस बात पर सारे ट्यूरिस्ट हंस पड़े! तभी राधे नें उसी समूह में चल रहे एक छोटे बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा कि हाँ बबुआ तुम अपने इस मोबाईल फोन में भी फोटो खींच सकते हो,बहुत ही बढ़िया..बम-बम भोले! सब लोग एक बार फिर से हंस पड़े।

राधे गाइड बड़े ही अनोखे अंदाज़ में सबका मनोरंजन करता हुआ उन्हें वाराणसी शहर की सैर करा रहा था और वैसे भी कहते हैं न कि वाराणसी के लोग बड़े ही अतरंगी होते हैं और जिसकी छाप राधे में बाखूबी दिखाई पड़ रही थी।

राधे नें बारी-बारी से सभी दर्शनीय स्थलों को दिखाना शुरू किया और साथ ही साथ वो वाराणसी का इतिहास भी सुनाता जा रहा था जैसे कि आज का वाराणसी चौबीस मई उन्नीस सौ छप्पन से पहले बनारस कहलाता था या फिर सत्तरह सो निन्यानबे का स्वतंत्रता के लिए वहाँ किया गया आह्वान,सबकुछ राधे की जुबान पर था।

"हाँ तो मेहमान जी आप सब अब थोड़ा करें विश्राम और फिर शाम को हम करेंगे गंगा आरती और भोलेबाबा को प्रणाम", कहता हुआ राधे आगे की ओर बढ़ गया जहाँ सामने से एक बूढ़ी एवं ममतामयी महिला उसी की ओर चली आ रही थी।

"जानकी माँ! आप हमेशा एकदम सही समय पर कैसे चली आती हो? घड़ी से तो तुम्हारा छत्तीस का आँकड़ा है मगर फिर भी बिना घड़ी देखे भी हमेशा राइट टाइम!!", कहते हुए राधे बिल्कुल बच्चों की तरह उस वृद्ध महिला के गले से लग गया।

भोलेनाथ के मन्दिर के बाहर ही एक पेड़ के नीचे राधे उस महिला के साथ बैठकर खाना खाने लगा। तभी वहाँ पर उसी ट्यूरिस्ट ग्रुप में से एक पच्चीस वर्ष की युवती उधर टहलते हुए आयी जिसे देखकर राधे नें कहा कि आइए मैडम भोजन कर लीजिए जिसपर वो युवती बस मुस्कुरा दी और वहीं पेड़ के नीचे बैठकर किसी से फोन पर बातें करने लगी।

बात खत्म करके जब उसनें उस महिला को अपने हाथ से राधे को खाना खिलाते हुए देखा तो वो कहे बिना न रह पायी कि राधे जी आपकी माँ आपको बहुत प्यार करती हैं। न जाने क्यों ये कहते हुए उस युवती की आँखें छलछला गयीं। इससे पहले कि राधे इस बात का कोई जवाब देता वो वृद्ध महिला बोल पड़ी..."बेटी ये मेरा बेटा नहीं, मेरी जिदगी है। मेरे हर एक सुख-दुख का साथी और इस भरी दुनिया में मेरा एकमात्र सहारा", इतना कहकर वो महिला अपनी आँखों की नमी छुपाते हुए वहाँ से चली गई।

शाम को राधे नें सभी को गंगा आरती,मणिकर्णिका घाट इत्यादि घुमाने के बाद अलविदा कह दिया और सब राधे का मेहनताना देकर और उसका बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करके वहाँ से चले गए मगर वो युवती अभी भी वहीं खड़ी थी जहाँ पर राधे नें इस यात्रा का औपचारिक समापन किया था।

मैडम जी! क्या आप यहाँ किसी का इंतजार कर रही हैं? क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ?

नहीं,राधे जी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। वो दरअसल मेरी ट्रेन अभी से चार घंटे बाद की है और मैं स्टेशन पर कुछ कम्फर्टेबल फ़ील नहीं करती बस इसलिए मैं यहाँ पर थोड़ा रुक कर जाऊँगी!

मैडम जी वैसे मेरा कहना तो नहीं बनता लेकिन आप चाहें तो मेरे साथ मेरे घर चल सकती हैं या फिर मैं यहाँ आपके साथ रुक जाता हूँ। वो क्या है न कि अंधेरा भी होने वाला है और फिर यहाँ हर तरह का आदमी घूमता है तो!

नहीं राधे जी आप मेरी फ़िक्र बिल्कुल भी न करें। आप आराम से घर जायें।

अच्छा जी मैडम! वैसे मैडम जी, आप करती क्या हैं?

जी राधे जी मैं जो करती हूँ बस उसी की तलाश में हूँ।

'मतलब?', राधे ने पूछा!

मतलब ये है राधे जी कि मैं एक लेखक हूँ और बस एक कहानी की तलाश में हूँ।

"अरे तो मैडम जी आपनें ये बात हमको पहले क्यों नहीं बताई? अरे एक कहानी को तो हम भी सालों से अपने दिल से लगाये घूम रहे हैं बस एक अच्छे लेखक की तलाश में और देखिए वो कहते हैं न कि बगल में छोरा और नगर में ढिंढोरा!! हम दोनों की तलाश एक-दूसरे के सामने खड़ी है मैडम जी!", राधे की आवाज़ में एक अजीब सा संतोष और अपार खुशी की खनक साफ-साफ सुनाई पड़ रही थी।

मैडम जी ये कहानी इसी बनारस की तमाम तंग गलियों से होकर गुजरती है। इस कहानी का जो नायक है न मैडम जी वो इसी शहर का नामाराशि था। उसका नाम था काशी! काशी बचपन से ही भोलेबाबा का एकदम पक्का वाला भक्त! छोटी सी उम्र से ही वो रोज सुबह नियम से मन्दिर जाता था और वहाँ से प्रसाद भी रोज लाता था मगर मैडम जी वो प्रसाद अपने घरवालों में से किसी को कभी नहीं देता था। वो प्रसाद देता था तो बस एक ही को और वो एक थी जानकी, उसके पड़ोस में ही रहने वाली उसकी एकलौती और सबसे अच्छी दोस्त जानकी!

जानकी के पिता जी थोड़े रंगीले मिजाज़ के आदमी थे और उसकी माँ, एक भोलीभाली स्त्री! तो हुआ यूं कि जानकी की माँ जानकी के पिता जी की रंगीनियाँ ज्यादा समय तक बर्दाश्त नहीं कर पायीं और उनके इस दुनिया से जाने के बाद पिता जी ले आये एक बिल्कुल अपने जैसी रंगीन मिजाज़ वाली पत्नी और जानकी की नई माँ! वो बस कहने भर की ही माँ थी मैडम जी बाकी शायद ही ऐसा कोई अत्याचार हो जो कि उसनें उस बेचारी फूल सी बच्ची जानकी पर न किया हो!! शायद इसलिए ही काशी बेचारी जानकी को अपने हिस्से का भी प्रसाद खिला दिया करता था क्योंकि ये बात तो उसे भी पता थी कि जानकी को उसकी माँ कभी भरपेट खाना भी नहीं देती है।

समय नें अपनी करवट ली और कभी हंसते-कभी रोते,लड़ते-झगड़ते जानकी और काशी कब उम्र की उस दहलीज़ पर पहुँच गये जहाँ काशी को जानकी को देखे बिना एक पल भी करार न था उन्हें पता ही न चला। बचपन की गहरी दोस्ती न जाने कब काशी के दिल में पनपने वाले गहरे प्रेम में बदल गई,काशी स्वयं भी न जान पाया। वो तो जब एक दिन बातों ही बातों में काशी की बुआ नें उसके रिश्ते की बात उसकी माँ से चलायी तब काशी का दिल धक्क से होने पर उसे एहसास हुआ कि उसके दिल में तो बहुत भीतर तक सिर्फ़ और सिर्फ़ जानकी ही बसी है।

कम बोलने वाला एक अन्तर्मुखी लड़का काशी कई बार चाहकर भी जानकी को अपने दिल की बात कभी भी नहीं बता पाया और दूसरी तरफ जानकी भी कभी इस बात को न स्वयं महसूस कर पायी और न ही कभी उसनें इस बारे में काशी पर ही कभी ध्यान दिया।

काशी पढ़ाई में बहुत होशियार था तो उसनें अपने माता-पिता के सपने को साकार करने का निश्चय कर मेडिकल एन्ट्रेंस एग्जाम क्लियर करके मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया। उसनें सोचा था कि वो अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद ही जानकी का हाथ उसके माता-पिता से माँगेगा क्योंकि उसे बहुत अच्छी तरह से पता था कि जानकी की सौतेली माँ उसके प्रेम में अड़चन डालने का कोई न कोई बहाना जरूर ढूँढेगी मगर उसे ये नहीं पता था कि उसका मुकद्दर उससे चार कदम आगे चल रहा था। इधर काशी,जानकी को लक्ष्य बनाकर जहाँ अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई बहुत मन लगाकर कर रहा था वहीं दूसरी तरफ उसकी किस्मत उसके साथ कुछ अलग ही साज़िशें कर रही थी।

जानकी की शादी उसकी माँ ने बनारस के पास के ही एक गाँव,'फूलपुर' के एक नामी वकील से तय कर दी। जब तक ये बात काशी के कानों में उसके माता-पिता द्वारा पड़ी तब तक तो जानकी की किस्मत उसे डोली में बिठाकर काशी से और उसकी जिंदगी से बहुत दूर ले जा चुकी थी।

शादी के सुर्ख लाल जोड़े में सजी उन्नीस साल की जानकी अपने गोरे रंग, तीखे नैन-नक्श और लम्बे घने खूबसूरत बालों के साथ मानो आसमान से जमीन पर उतरी बिल्कुल एक अप्सरा लग रही थी। एक नई-नवेली दुल्हन के तमाम सपनों को अपनी पायल की रूनझुन में छनकाती हुई,वो वकील साहब की उस कोठी में प्रवेश तो कर गई मगर उसे इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि ये विवाह उसके सपनों की शुरुआत नहीं बल्कि उसके अनगिनत अरमानों का अंत है!!

जानकी की किस्मत यहाँ भी उसे ठग गई क्योंकि वकील साहब तो पहले से ही शादीशुदा थे और एक संतान के पिता भी! जानकी नें यहाँ भी चुपचाप अपनी किस्मत से समझौता कर लिया और अपनी सौतेली माँ द्वारा रचे गए षड़यंत्र को बिना किसी शिकवा या शिकायत किये कुबूल कर लिया।

"नहीं,हम खाना नहीं खायेंगे। जब तक हमारी माँ हमें अपने हाथों से खाना नहीं खिलाती,हम खाना नहीं खायेंगे।" बच्चा जिद्द किये जा रहा था और परिवार के सभी सदस्यों की उसे मनाने की कोशिशें एक के बाद एक दम तोड़ रही थीं तभी वहाँ जानकी का आगमन...

"आप अपनी माँ के हाथ से खायेंगे तो फिर ठीक है,हम आपको अपने हाथों से ही खिलाते हैं।" कहती हुई जानकी नें उस मासूम से छह वर्षीय बालक को अपनी गोद में बिठा लिया।

"आपका नाम क्या है?"बालक नें बड़े ही भोलेपन से पूछा।

हमारा नाम जानकी है।

तो फिर आप मेरी माँ नहीं हैं क्योंकि हमारी माँ का नाम तो सावित्री है और बालक ये कहते हुए उछलकर जानकी की गोद से उतर गया।

तभी जानकी नें उसका हाथ बड़ी ही ममता और स्नेह के साथ पकड़ते हुए कहा कि हाँ हमारा नाम सावित्री नहीं है तभी तो हम आपकी सावित्री माँ नहीं हैं। हमारा नाम जानकी है और हम आपकी जानकी माँ हैं।

'जानकी माँ', बच्चा इस बार मुस्कुरा दिया और जानकी नें उसे अपने सीने से लगा लिया।

इस तरह से जानकी उन वकील साहब के बच्चे की माँ, उस कोठी की मालकिन, नयी बहू सबकुछ तो बनी मगर जो एक नई-नवेली ब्याहता का सबसे पहला अरमान होता है कि एक पत्नी,एक प्रेयसी बनना वो जानकी कभी नहीं बन पायी क्योंकि उन वकील साहब नें उसे कभी ये हक दिया ही नहीं बल्कि वो तो अपनी पहली पत्नी से बहुत अधिक प्रेम करते थे इतना प्रेम की जानकी की सच्चाई और अच्छाई भी कभी उस प्रेम को पिघला नहीं पायी।

समय आगे बढ़ गया और इधर काशी भी डॉक्टर बन गया मगर उसका मन कभी भी उस भोलेबाबा के मंन्दिर से और बनारस के इन घाटों से आगे नहीं बढ़ पाया। वो रोज शाम को घाट पर आता और घंटों सीढ़ियों पर बैठकर यहाँ-वहाँ देखते हुए बिताता। उसकी नज़रें आज भी हर तरफ़ सिर्फ़ और सिर्फ़ जानकी को ही तलाशती थीं।

मैं तो बड़ा होकर डॉक्टर बनूँगा और तू क्या बनेगी?

मैं! मैं तो शादी करूँगी।

हाहाहा..हाहा!!

अरे इसमें इतना हंसने की कौन सी बात है? तू पागल है क्या?

मैं नहीं तू पागल है,शादी! हाहा..हा!! अच्छा चल तू एक काम करना तुझे कुछ नहीं बनना न तो ठीक है,मैं बन जाऊँगा डॉक्टर और तू मुझसे ही शादी कर लेना इतना कहकर एक बार फिर से अपना पेट पकड़कर जोर-जोर से हंसने लगा काशी और इस पर गुस्सा होकर मुंह फुलाकर वहाँ से चल दी नन्ही जानकी।

फिर उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़ा उसे मनाता हुआ काशी। अच्छा अब गुस्सा मत हो, ले प्रसाद खा ले,देख तो मैं प्रसाद लाया हूँ तेरे लिए।

माँ...माँ, बच्चे की आवाज़ से अतीत से वर्तमान में लौटी जानकी! न जाने सपना था या हकीकत, अपनेआप में ही बोल रही थी जानकी। न जाने क्यों आज जानकी का मन बहुत ही बेचैन था और इसपर उसनें वकील साहब से इजाजत लेकर अपने मायके जाने की तैयारी शुरू कर दी।

भगवान का लाख-लाख धन्यवाद था कि मायके पहुँचने पर उसकी आशंका गलत साबित हुई। वहाँ पर सबकुछ ठीक था लेकिन ये किसे पता था कि ये तो तूफान आने से पहले की शांति मात्र थी। अभी जानकी को मायके आये हुए पूरे दिन भी नहीं बीते थे और उसके ससुराल से एक मनहूस खबर उसका पीछा करते हुए चली आयी जिसके बाद जानकी को उल्टे पाँव ही वापिस अपने ससुराल फूलपुर लौटना पड़ा! इस बीच जानकी, काशी से भी नहीं मिल पायी जबकि इस बार जानकी काशी से मिलने और उसकी खैरियत जानने की इच्छा अपने मन में लेकर आयी थी जो उसके साथ उसके मन में ही वापिस लौट गई। दरअसल काशी इस बीच दिल्ली में होने वाले किसी डॉक्टरों के सेमिनार में गया हुआ था।

जानकी के फूलपुर पहुँचने से पहले ही वकील साहब इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे और पीछे छोड़ गये थे अपना रोता-बिलखता नन्हा बच्चा। हालांकि वकील साहब की इस आक्समिक और संदेहजनक मौत का जिम्मेदार पूरे गाँव वालों समेत वकील साहब के घरवालों नें तो जानकी को ही ठहराया मगर वकील साहब के सबसे वफ़ादार और बहुत पुराने नौकर माधव ने जानकी को जब इसकी सही वजह बतायी तो मानो कि उसके पैरों तले तो ज़मीन ही खिसक गई और उसनें उसी नौकर माधव की मदद से ही रातों-रात फूलपुर छोड़ने का फैसला कर लिया और अब वो बनारस में थी मगर वो यहाँ आकर भी अपने माता-पिता के घर ना जाकर वहीं अलग से एक मकान किराए पर लेकर रहने लगी।

एक दिन जब जानकी उसके बेटे को तेज बुखार की स्थिति में अस्पताल लेकर गई तो वहाँ एक बार फिर उसका बचपन काशी के रुप में उसके सामने आकर खड़ा हो गया।

काशी!

"अरे नहीं सिर्फ काशी नहीं,डॉक्टर काशी", कहते हुए एक अजीब सी खुशी से चमक उठीं अपने सामने खड़ी जानकी को देखकर काशी की आँखें और उसने फिर थोड़ा रुककर पूछा...

तुम्हारा बेटा तो बहुत बड़ा हो गया मगर तुम्हारी शादी को तो अभी इतना समय नहीं हुआ न!! फिर? अच्छा छोड़ो ये बताओ कि तुम यहाँ अकेले कैसे और वकील साहब कहाँ है? वो वकील ही हैं न? काशी बोलता ही जा रहा था और फिर जब उसकी नज़र जानकी के बहते हुए आँसुओं पर पड़ी तो वो अचानक घबराकर चुप हो गया। फिर उसनें जानकी को अपने केबिन में ले जाकर एक कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए उस छोटे से बच्चे को जानकी की गोद से लेकर अपनी गोद में बिठा लिया।

कुछ देर सबकुछ बिल्कुल शांत रहा और फिर काशी नें ही पुनः उस माहौल की खामोशी को तोड़ने के इरादे से उस बच्चे से बात करना और उसके साथ खेलना शुरू कर दिया। इस बीच काशी के कहने पर उसी अस्पताल की एक नर्स आकर उस बच्चे को एक गिलास दूध और बिस्किट के साथ दवा खिला गई थी और फिर कुछ ही देर बाद बच्चे को बुखार में आराम मिलते ही नींद भी आ गयी जिसपर काशी नें उसे गोद में लेकर अपने ही केबिन में एक ओर लगे हुए बिस्तर पर लिटा दिया।

कुछ खाओगी, काशी के पूछने पर जानकी नें ना में अपना सिर हिला दिया। काशी नें फिर भी दो चाय और साथ में ब्रेड पकौड़े मंगवा लिये!

काशी, ये बेटा मेरी और वकील साहब की संतान नहीं है बल्कि ये उनकी पहली पत्नी सावित्री से है और रही उनके मेरे साथ न आने की बात तो काशी वो अब इस दुनिया में नहीं है और ये बच्चा मेरी जिम्मेदारी है और अब मैं ही इसकी माँ हूँ! वकील साहब एक अच्छे इंसान थे और शायद उनकी ये ही अच्छाई उनके छोटे भाइयों की आँखों में खटकने लगी जिसका खामियाजा उन्हें अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। वो लोग इस बच्चे का भी अहित कर सकते हैं बस यही सोचकर मैं फूलपुर छोड़ने के बाद अपने मायके भी नहीं गयी और बस...कहते-कहते बरस पड़ीं जानकी की आँखें!!

इस वाकये को बीते कई दिन हो गए मगर इस दौरान न तो काशी नें ही स्वयं जानकी के पास जाना उचित समझा और न ही जानकी नें ही कोई पहल की।

फिर एक दिन जब काशी अपने केबिन में अपने मरीज़ों के साथ व्यस्त था तभी अचानक बाहर से उसे जानकी की आवाज आती हुई सुनाई दी और वो जब देखने के लिए फुर्ती से उठकर बाहर गया तो वहाँ सचमुच जानकी ही खड़ी थी जो उस अस्पताल के ही एक स्टाफ मेम्बर से हाथ जोड़कर डॉक्टर काशी से मिलने की गुहार लगा रही थी।

जानकी! क्या हुआ जानकी और तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?

काशी को अपने सामने खड़ा हुआ देखकर जानकी और भी ज्यादा रोने लगी और फिर काशी अपने साथ के दूसरे डॉक्टर को अपने मरीजों को देख लेने की हिदायत देकर जानकी को अपने साथ वहाँ से बाहर ले गया।

काशी न जानें कैसे उन लोगों नें मेरा पता लगा लिया है और अब वो मुझे और मेरे बच्चे को जिंदा नहीं छोड़ेंगे मगर काशी मुझे अपनी जान की ज़रा भी फिक्र नहीं है। मुझे फ़िक्र है तो बस मेरे बच्चे की जिसपर काशी नें जानकी से कहा कि उसे तो मगर उन दोनों की फ़िक्र है। फिर कुछ देर सोचने के बाद उसनें जानकी से कहा कि अब इस गंभीर समस्या से निकलने का उनके पास सिर्फ एक रास्ता है और वो है जानकी और काशी की शादी जिसके बाद वो कानूनन उसकी पत्नी बन जायेगी और वकील साहब के धन के लालची भाईयों को चैन की साँस आयेगी कि अब उसका वकील साहब की जायदाद पर कोई हक नहीं रहा और हाँ इसके साथ ही साथ वो कानूनन तौर पर उसके बेटे को भी गोद ले लेगा जिससे कि उस बालक के सिर पर मंडराता हुआ मौत का साया भी खुदबाखुद ही मिट जायेगा।

जानकी नें इस बात को सुनकर तुरंत ही काशी को साफ इंकार कर दिया। नहीं काशी मैं अपने स्वार्थ के लिए तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद नहीं कर सकती मगर काशी आज भी जानकी से अपने दिल की ये बात नहीं बता पाया कि जानकी ही तो उसकी जिंदगी है।

काशी के हर तरह से समझाने पर भी जब जानकी उसकी बात पर राजी नहीं हुई तो काशी नें उसे इस बात पर राजी कर लिया कि वो अगले दो दिनों के लिए अस्पताल के किसी जरूरी काम से शहर से बाहर जा रहा है और तब तक वो उसी के घर में रहेगी जो उसका सरकारी निवास था और जहाँ वो सुरक्षित रहेगी और फिर दो दिन बाद लौटने पर वो जानकी की सहमति से ही इस समस्या का कोई हल निकालेगा।

रात के दो बजे जब सरकारी क्वार्टर का दरवाजा किसी नें खटखटाया तो जानकी बहुत ही बुरी तरह से सहम गई और एक अंजाने डर नें उसे आकर घेरा ही था कि बाहर से अस्पताल के स्टाफ से ही राजन नाम के शख्स की चिर-परिचित आवाज नें जानकी को उसके डर से बाहर निकालकर दरवाजे के बाहर खड़ा कर दिया। हालांकि उस शख्स ने जानकी को ज्यादा कुछ बताया तो नहीं बस काशी का नाम लेकर उसे अपने साथ चलने को कहा मगर चूंकि जाते वक्त काशी नें स्वयं ही उसे राजन से मिलवाते हुए उसपर पूरा विश्वास करने की बात कही थी बस इसीलिए जानकी इस ओर से बिल्कुल निश्चिंत थी।

सुबह होने को थी और जानकी अब राजन के साथ काशी के सामने थी मगर उसके सामने जो दृश्य था वो उसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। वो एक अस्पताल के एक निजी वॉर्ड में खड़ी थी जहाँ उसकी आँखों के सामने बेड पर काशी लेटा हुआ था और वहीं पास में ही काला कोट पहने हुए एक आदमी खड़ा था जो कि शायद एक वकील था और पास की मेज पर रखी हुई थीं, दो गुलाब के फूलों की मालाएं।

जानकी कुछ भी समझ पाती उससे पहले ही पास खड़े उस काले कोट वाले नें जानकी से लिखा-पढ़ी और पूछताछ शुरू कर दी। शायद ये उस बच्चे को गोद लेने की प्रक्रिया थी तभी काशी नें सबको वहाँ से बाहर जाने का इशारा किया।अब उस कमरे में बस वो सहमा सा बच्चा,जानकी और काशी ही बचे थे।

"काशी! ये सब क्या है? क्या हुआ तुम्हें?" जानकी ने काँपती हुई आवाज में काशी से पूछा।

जानकी मेरे पास वक्त बहुत कम है। तुम बस ये समझ लो कि शायद मेरी किसी दुआ का असर है जो उस ऊपर वाले नें मुझे इतनी मोहलत दे दी कि मैं तुमसे इस वक्त बात कर पा रहा हूँ। जब मैं यहाँ पहुंचा तो यहाँ का माहौल कुछ ठीक नहीं था और जब तक मैं कुछ समझ पाता या वापिस लौट पाता तब तक कुछ अराजक तत्वों नें मुझपर हमला कर दिया और मैं यहाँ पहुंच गया।

"जानकी अभी थोड़ी देर में ही हमारी शादी हो जायेगी। वो जो बाहर वकील साहब खड़े हैं न वो ही हमारी शादी करवायेंगे और हाँ सबसे अहम बात जिसे तुम्हें बताए बिना मैं कभी भी सुकून से न मर पाता कि ये शादी तुम पर नहीं बल्कि मुझ पर तुम्हारा एक बहुत बड़ा एहसान है। तुमनें उस दिन कहा था न कि तुम मेरी जिंदगी बर्बाद नहीं कर सकती,काश कि मैं उसी दिन तुम्हें ये सच बता पाता कि तुम ही मेरी जिंदगी हो जानकी। मैं तुम्हारे बिना खुद को कभी सोच भी नहीं सकता और शायद इसीलिए मेरे जीवन में जीवनसाथी का स्थान अब तक रिक्त है। जानकी आज मैं उस रिक्त स्थान को भरना चाहता हूँ। जानकी क्या तुम मेरे जीवन की बची हुई इन चंद घड़ियों की साथी बनोगी?", कहते-कहते काशी की आँखें बंद होने लगीं और फिर जानकी के चीखने पर बाहर खड़े सभी लोग अंदर आ गए। काशी की साँसें अभी भी चल रही थीं और फिर काशी और जानकी की शादी भी हुई जिसका साक्षी बना वो नन्हा बालक।

मैडम जी जानकी माँ के आखिरी शब्द जो मैं आज भी नहीं भूला हूँ वो ये थे कि काशी,काश तुम ये सब मुझसे पहले कह देते तो आज मैं तुम्हारे इस सच्चे प्रेम को, तुम्हारी पूजा को सार्थक कर पाती। काश कि मैं भी तुम्हें तुम्हारे हिस्से का सम्मान दे पाती, कहकर फूट-फूटकर रो पड़ी मेरी जानकी माँ!

राधे तुम वो ही छोटे बच्चे हो न?

हाँ मैडम जी! मैं वो ही बच्चा हूँ और इस बार राधे भी रो पड़ा। फिर उसनें अगले ही पल खुद को सम्भालते हुए कहा...

मैडम जी आप ये कहानी छापेंगी न? मैं चाहता हूँ कि काशी के अमर,निस्वार्थ प्रेम की ये कहानी और मेरी जानकी माँ के त्याग और तपस्या की ये महान कहानी इन बनारस की गलियों से निकलकर सारी दुनिया में फैल जाये,हर एक दिल तक पहुंच जाये,मैडम जी और मैडम जी कहते हैं कि यहाँ के मणिकर्णिका घाट पर यदि किसी व्यक्ति का अंतिम संस्कार किया जाये तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है मगर मैडम जी मेरे भगवान,मेरी इस कहानी के हीरो काशी को तो मोक्ष तभी मिलेगा जब वो सबके दिलों तक पहुंचेगा बस मेरा तो यही मानना है मैडम जी! राधे अपनी शर्ट की आस्तीनों से बारी-बारी से अपने दोनों गालों पर ढुलकते हुए आँसुओं को पोंछता जा रहा था और पता नहीं क्या-क्या बोलता जा रहा था, ये उसे स्वयं भी समझ में नहीं आ रहा था।

"राधे! राधे तुम बिल्कुल निश्चिंत हो जाओ। मैं तुम्हारी ये कहानी जरूर छपवाऊँगी", उस युवती नें राधे के कंधे पर हाथ रखते हुए नम आँखों से कहा।

उस बात को बीते आज पूरे आठ महीने होने वाले थे और इस दौरान उस युवती का राधे को कोई एक फोन तक नहीं आया और अब तो स्वयं राधे के लिए भी वो वाकया धुंधला सा पड़ता जा रहा था और फिर एक दिन अचानक ही राधे के पास उस युवती का फोन आ गया।

बधाई हो राधे! तुम्हारी कहानी...काशी..."एक प्रेम ग्रन्थ", बैस्ट सैलर बन गई है और तुम्हें और तुम्हारी जानकी माँ को यहाँ बम्बई आना है। अरे! यहाँ तुम्हें अवार्ड मिलेगा। राधे तुम सुन रहे हो न,हैलो! हैलो!

हाँ मैडम जी,मैं सुन रहा हूँ और राधे खुशी से झूम उठा। राधे ये खुशखबरी जानकी माँ को सुनाने के लिए जैसे ही फोन रखकर पीछे मुड़ा तो उसनें अपनी जानकी माँ को अपने पीछे ही खड़ा पाया और अब माँ-बेटे दोनों की ही आँखों में खुशी के आँसू थे। जानकी माँ बस इतना ही बोलीं कि आज तूने अपना फर्ज़ पूरा कर दिया मेरे बच्चे और फिर उन्होंने पुचकार कर राधे को अपने सीने से लगा लिया।



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