"ज्ञानी"
"ज्ञानी"
"होली हो गई आपलोगों की?" ननद की आवाज़ ने उनके आगमन की सूचना दी।
"भाभी कहाँ हैं?" यूँ तो छोटे देवर की आवाज़ बेहद धीमी थी परंतु शांति में सुई के गिरने की आवाज़ पकड़ने वाली बहू सचेत थी।
"वाशरूम में..," ननद भी इशारे से समझा दी।
ज्यों ही वो वाशरूम से निकलकर बाहर आने लगी देवर रंग वाली छोटी बाल्टी उस पर उड़ेलना चाहा और उनकी मदद के लिए पति महोदय भी बाल्टी थाम लिए... लेकिन सचेत होने के कारण बहू दोनों हाथ से बाल्टी को ऊपर से ही थाम ली...
"अरे! अरे! संभालना.. जरा संभल कर बहू.. गर्भवती हो और दिन पूरे हो गए हैं... रंग डाल ही लेने दो उन्हें तुम्हारे ऊपर.. कहीं पैर ना फिसल जाए कोई ऊँच-नीच ना हो जाये.." सास चीख पड़ीं।
"क्यों माँ तुम्हें भाभी की चिंता कब से होने लगी..? पूरे नौ महीने उन्हें ना तो एक दिन आराम का मिला और ना चैन-सकूँ का..!"
"यह तुम अभी नहीं समझोगी, अभी तो तुम्हारी शादी भी नहीं हुई है। गर्भवती को क्या फायदा क्या नुकसान बड़ी-बूढ़ी ही समझा सकती हैं।"
सास-ननद की बातों तरफ देवर पति को उलझा देख बाल्टी पर पकड़ कमजोर पाई और सारा रंग देवर के ऊपर उड़ेल कर बोली... "किसी को कोई चिंता करने की बात नहीं है... स्त्री सशक्त हो चली हैं...।" सभी के ठहाके से रंगीन होली हो ली।